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144 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन इन सभी में जो माध्यस्थ भाव रखता है उसी का नाम उपेक्षा है ।। ये कितने सुन्दर भाव कहे हैं -देख दूसरों की बढ़ती को कभी न ईर्ष्या भाव धरुं । यही माध्यस्थ भावना है।
सर्वदा और सर्वत्र मात्र प्रवृत्ति परक भावनाएं ही साधक को नहीं होतीं, कई बार अहिंसा आदि महाव्रतों को स्थिर रखने के लिए तटस्थ भाव धारण करना भी बड़ा उपयोगी होता है। इसी कारण यहां विशेषकर अध्यात्म जगत् में माध्यस्थ भावना का विधान किया गया है। जब नितान्त संस्कारहीन अथवा किसी तरह की भी सद्वस्तु ग्रहण करने के अयोग्य पात्र मिल जाए और यदि उसे सुधारने के सभी प्रयत्नों का परिणाम अन्ततः शून्य ही दिखाई ते तब ऐसे व्यक्ति के प्रति तटस्थभाव रखना ही उचित है । अतः माध्यस्थ भावना का विषय अविनेय अथवा अयोग्य पात्र ही है।
जो कल्याणकारी वचन नहीं सुनना चाहता उस पर कभी भी क्रोध नहीं करना चाहिए और उसे भला-बुरा भी नहीं कहना चाहिए। वह यदि उसे सुनेगा तो उसका ही कल्याण होगा और नहीं सुनेगा तो उसमें किसी को क्या हानि ? किन्तु उसके न सुनने, उने बुरा भला कहने और उस पर क्रोध करने पर तो अपनो हो मानसिक शान्ति भंग होगी और आन्तरिक सुख भी नष्ट हो जाएगा। अतः साधक को माध्यस्थभाव से ही रहना चाहिए । जो साधक तटस्थ रहता है, वही पूज्य होता है। कारण कि मनोज्ञ और अमनोज्ञ में तटस्थ रहना ही वीतराग है । इसी १. क्रोधविद्वषु सत्त्वेषु निस्त्रिंशकूरकर्मसु ।
मधु-माँस-सुरान्यस्त्रीलुब्धेष्बत्यन्तपापिषु ॥ देवागमयति व्रात निन्दकेष्वात्मशंसिषु । नास्तिकेष च माध्यस्थं तत्सापेक्षा प्रकीर्तिता ।। ज्ञानार्णव, २७.१३-१४ तथा मिला०-कर-कर्मसु निःशं तं देवता गुरुनिन्दिषु । आत्मसंसिषु योपेक्षा तन्माध्यस्थमुदीरितम् ।।
योगशा० ४.१२१ २. (संघवी तत्त्वार्यसूत्र ७.६ पर व्याख्या, प० २७१-७२ ३. योऽपि न सहते हितमुपदेशं, तदुपरि मा कुरु कोपं रे ।
निष्फलमा किं परजनतप्त्या कुरुषे निजस खलोपं रे ॥ शान्तसधारस
भावना, १६.४ ४. जो रागदीसेहि समीप पुज्जी । दशवै ६.३.११ ५. समी जो तेसु य वीयरागो । उत्तरा० सू०, ३२.२२
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