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योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
अर्थात् इसमें चित्त की शान्ति अंशमात्र भी नहीं रहती। दीपक के प्रकाश की भांति इस दष्टि में साधक की आस्था दढ़ और स्थिर होती जाती है फिर भी जैसे हवा के तीव्र झोंके से दीपक बझ जाता है वैसे ही इस दष्टि में भी साधक तीव्र मिथ्यात्व के उदय के कारण श्रद्धाहीन हो जाता है। योगिक अनुष्ठानों से इस दृष्टि में साधक शारीरिक और मानसिक स्थिरता को पाता है। जिस प्रकार प्राणायाम न केवल शरीर को ही दृढ़ करता है अपितु आन्तरिक नाड़ियों के साथ-साथ मन को भी शुद्ध करता है। उसी प्रकार इस दृष्टि में रेचक प्राणायाम की तरह बाह्य परिग्रहादि विषयों में ममत्व बुद्धि तो रहती है किन्तु पूरक प्राणायाम की तरह विवेक शक्ति में भी वृद्धि होती है और कुंभक प्राणायाम की तरह ज्ञान केन्द्रित हो जाता हैं। इसे भाव प्राणायाम भी कहा गया है। इस पर जिस साधक ने अधिकार प्राप्त कर लिया हैं वह बिना संशय के प्राणों से भी अधिक धर्म साधना को महत्त्व देता है। वह धर्म के लिए प्राणों का त्याग करने में भी संकोच नहीं करता अर्थात् इस दृष्टि में साधक को धार्मिक आस्था बहुत हो सुदृढ़ हो जाती है ।
इस दृष्टि में यद्यपि साधक का चारित्रिक विकास होता है फिर भो वह अपूर्ण ही रहता है। वह लौकिक पदार्थों की अनित्यता को अच्छी तरह पहचान लेता है। इसी से वह इनका त्याग कर आत्मावा परमात्मा के स्वरूप को जानने के लिए गुरुओं अथवा मुनियों के पास जाने को उत्सुक रहता है किन्तु तीव्र मिथ्यात्व के कारण वह कर्म करने में समर्थ नहीं हो पाता और न ही वह पूर्ण सम्यग्दर्शन ही प्राप्त कर पाता है । अतः यह दृष्टि मिथ्यात्वमय ही होता है ।।
इन चार दृष्टियों में साधक को सम्यग्ज्ञान नहीं हो पाता इसीलिए इन्हें ओघदष्टि कहा जाता है। यदि तत्त्वज्ञान हो भी जाए तो वह १. प्राणायावमती दीप्रा न योगोत्थानवत्यलम् ।
तत्त्वश्रवणसंयुक्ता सूक्ष्मबोधविजिता । वही, श्लोक ५७ २. रेचनाद्वाह्यभावनामतभावस्य पूरणात् ।
कुंभनान्निश्चितार्थस्य प्राणायामश्च भावतः ॥ ताराद्वात्रिशि०, श्लोक १६ ३. प्राणेभ्योऽपि गुरुधर्मः सत्यामस्यामसंशयम् ।
प्राणाँस्त्यजति धर्मार्थं न धर्म प्राणसंकटे ॥ योगदृष्टिसमु०, श्लोक ५८ ४. मिथ्यात्वमस्मिंश्च दशां चतुष्केऽवतिष्ठते नन्थ्यविदारणेन ।
अध्यात्मतत्तवालोक, १०८
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