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योगबिन्दु की विषय वस्तु
119 उससे स्पष्ट तत्त्वबोध नहीं होता, क्योंकि उसमें मिथ्यात्व अथवा अज्ञान इतना प्रगाढ़ होता है, जो उसके दर्शन और ज्ञान को दबाये रखता है फिर भी साधक सर्वज्ञ का अन्त:करण पूर्वक नमस्कार करता है तथा
औषधिदान, शास्त्रदान, वैराग्य, पूजा, श्रवण-पठन एवं स्वाध्याय आदि क्रियाओं व भावनाओं का पालन व चिन्त्वन करता है। साधक माध्यस्थ इत्यादि भावनाओं का चिन्तन करने और मोक्ष की कारणभूत सामग्री को जुटाते रहने के कारण इस स्थिति को योगबीज कहा जाता है ।।
इस दृष्टि को यद्यपि तृणाग्नि की उपमा दी गयी है फिर भी इसमें साधक अपनी आत्मा के विकास की इच्छा तो करता ही है, साथ ही पूर्वजन्म के संस्कारों अथवा कर्मों के कारण वैसा नहीं हो पाता। • तारादृष्टि
इसमें साधक मोक्ष की कारणभूत सामग्रियों अर्थात् योग-बीज की पूर्ण रूप से तैयारी करके सम्यग्बोध प्राप्त करने में योग्यता हासिल कर लेता है। इसके अतिरिक्त वह यहां शौच आदि नियमों का भी पालन करते हए कार्य करने में खेद-खिन्न नहीं होता बल्कि उसकी तात्त्विक जिज्ञासा जाग्रत होती जाती है जिससे साधक कण्डाग्नि की तरह क्षणिक सत्य का अनुसन्धाता बन जाता है। इस दृष्टि में गुरु सत्संग के कारण साधक की अशुभ प्रवृत्तियां बन्द हो जाती हैं और संसार सम्बन्धी कोई भी भय उसे नहीं रहता। फलतः अनजाने में भी वह धामिक कार्यों में अनुचित व्यवहार नहीं करता।' १. (क) करोति योगबीजोनामुपादानमिह स्थितः ।
अवन्ध्यमोक्षहेतूनामिति योगविदोः विदुः ।। योगदृ० समु०, २२ (ख) जिनेषु कुशलं चित्तं तन्नमस्कार एव च ।
प्रणामादि च संशुद्धं योगबीजमुत्तम् ।। वही, श्लोक २३ (ग) आचार्यादिष्वपि ह्य तद्विशुद्धं भावयोगिषु ।
वैय्यावृत्त्यं च विधिवच्छद्धाशयविशेषतः ।। वही, श्लोक २६ (घ) लेखना पूजना दानं श्रवणं वाचनोद्ग्रहः ।।
प्रकाशनाथ स्वाध्यायश्चिन्ता भावनेति च ॥ वही, श्लोक २८ २. तारायां तु मनाक् स्पष्टं नियमश्च तथाविधः ।
अनुवै गो हितारम्भे जिज्ञासा तत्त्वगोचरा ॥ योगदृष्टि समु०, श्लोक ४१ ३. भयं नातीव भवज कृत्यहानिन चोचिते।
तथाऽनाभोगतोऽप्युच्चैर्न चाप्यनुचितक्रिया । वही, श्लोक ४५
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