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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
इस दशा में योगी साधक के बाकी पांच संयोजन नष्ट हो जाते हैं और साधक का चित्त पहले की अपेक्षा और अधिक ऋजु हो जाता है। इस तरह साधक का चित उपयुक्त दस अवस्थाओं से हल्का और तेजस्वी हो जाता है फिर भी ऊपर की परियोजनाओं में उसका चित्त भारी और मन्द बना ही रहता है । (५) अर्हत् चित्त
इस अवस्था में योगो के सभी आस्रव तथा क्लेश सदा-सदा के लिए क्षीण हो जाते हैं और वह ब्रह्मचर्यवास को पूरा करके सभी प्रकार के भवपाशों का भी व्युच्छेद कर डालता है। फलस्वरूप उसका चित्त अत्यन्त विशुद्ध अथवा अतिनिर्मल बन जाता है ।
ध्यान देने योग्य है कि इस अवस्था में चित्त की शुद्धि तो हो ही जाती है लेकिन प्रत्येकबुद्ध की अपेक्षा भारी एवं मन्द ही होती है।
(६) प्रत्येकबुद्धचित्त
इस अवस्था में साधक स्वयं अपना स्वामी होता है और उसे किसी भो आचार्य अथवा गुरु की अपेक्षा नहीं रहती है। यहां उसका चित्त और भो अधिक निर्मल और विशुद्ध होता जाता है और सम्यक् सम्बोधि की प्राप्ति में अग्रसर होता है।
प्रत्येक बुद्ध एकाकी विचरण करता हआ सम्बोधि को धारण करके परिनिवृत्त हो जाता है। इसी से इसे सम्यक्सम्बुद्ध न कहकर प्रत्येकबुद्ध बतलाया गया है। (७) सम्यक्सम्बुद्ध चित्त
यह साधना की पूर्ण अवस्था है। इसमें साधक सर्वज्ञ हो जाता है, जो दश व्रतों की धारणा करने वाले चार प्रकार के वैशारद्यों, दशबलों एवं अठारह आवेणिक बुद्धधर्मों से युक्त होता है। वह इन्द्रियों को सर्वथा जीत लेता है। यह अवस्था पूर्णतः अचल और शान्त होती है। साधक यहां सर्वज्ञ बन जाता है और परिनिर्वाण का धारक बन कर अन्य सत्त्वों को कल्याण मार्ग में लग जाने का सदुपदेश करता है जबकि प्रत्येकबुद्ध ऐसा नहीं करता । यही दोनों में वैशिष्ट्य है।
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