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कहीं-कहीं मुहावरों के माध्यम से रचनाकार की लोकधर्मी काव्यभाषा की झलक भी प्राप्त होती है। यथा१. 'गिरिं नहेहिं खणह'"(नखों से पर्वत खोदना) इस भिक्षु का अपमान - कर रहे हो, तुम नखों से पर्वत खोद रहे हो। २. 'जायतेयं पाएहि हणह'८२ (पैरों से अग्नि प्रताड़ित करना) पैरों से अग्नि
को प्रताड़ित कर रहे हो। ३. 'बाहाहिं सागरो चेव तरियव्वो गुणोयही'८३ (भजाओं से सागर तैरना)
भुजाओं से सागर को तैरना जैसे कठिन कार्य है वैसे ही गुणोदधि संयम
को तैरना कठिन कार्य है। ४. 'वालुयाकवले चेव निरस्साए उ संजमे'८४ (बालू के कोर की तरह स्वाद
रहित) संयम बालू के कोर की तरह स्वाद रहित है! ५. 'असिधारागमणं चेव' (तलवार की धार पर चलना) तप का आचरण
करना तलवार की धार पर चलने जैसा है। ६. 'अहिवेगंतदिट्ठीए'८६ (सांप की तरह एकाग्रदृष्टि) चारित्र का पालन
सांप की एकाग्रदृष्टि के समान कठिन है। ७. 'जवा लोहमया चेव चावेयव्वासुदुक्करं'७-(लोहे के चनों को चबाना)
लोहे के चनों को चबाना जैसे कठिन है वैसे ही चरित्र का पालन
कठिन है। ८. 'जहा अग्गिसिहा दित्ता पाउं होइ सुदक्करं' (प्रज्वलित अग्नि-षिखा
पीना) जैसे प्रज्वलित अग्निशिखा को पीना बहुत ही कठिन है वैसे ही यौवन में श्रमण-धर्म का पालन करना कठिन है। 'जहा दुक्खं भरेउं जे होइ वायस्स कोत्थलो (वस्त्र के थैले को हवा से भरना) जैसे वस्त्र के थैले को हवा से भरना कठिन कार्य है वैसे ही
सत्त्वहीन व्यक्ति के लिए श्रमण-धर्म का पालन कठिन कार्य है। १०. 'जहा तुलाए तोलेउं दुक्करं मंदरो गिरी'९° (मेरू-पर्वत को तराजू से
तोलना) जैसे मेरू-पर्वत को तराजू से तोलना बहुत कठिन है वैसे ही निश्चल और निर्भय भाव से श्रमण-धर्म का पालन करना बहुत कठिन है।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन के मुहावरे मानव-मन को संदर्भो की गहराई की अनुभूति कराने में सक्षम हैं।
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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