________________
'न तस्स दुक्खं....' (१३/२३) 'माणुस्सं खु सुदुल्लहं' (२२/३८)
भीतर एक प्रेरणा जगी कि अध्यात्म की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां एवं उस समय के सांस्कृतिक प्रकाश को काव्यभाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करने वाला उत्तराध्ययन स्वाध्याय का अंग बने ।
कुछ विद्वान आगमों को नीरस मानते हैं। उनका कहना है कि आगमों में साहित्यिक तत्त्व नहीं हैं। 'उत्तराध्ययन एक श्रमण काव्य है' इससे भी कुछ विद्वान सहमत नहीं है। किन्तु हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिट्रेचर (भाग २) में पाश्चात्य विद्वान विन्टरनित्स ने इसे श्रमणकाव्य से अभिहित किया है। वक्रोक्ति, रस, छंद, अलंकार, प्रतीक, बिम्ब आदि काव्य के तत्त्वों का भरपूर प्रयोग उत्तराध्ययन में हुआ है। अतः निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उत्तराध्ययन श्रमणकाव्य है, इसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है। काव्य के इन्हीं तत्त्वों का शैलीवैज्ञानिक अध्ययन के माध्यम से उजागर करने का प्रयत्न प्रस्तुत शोध प्रबंध में हुआ है।
. शैलीवैज्ञानिक अध्ययन आलोचना एवं समीक्षा की वह पद्धति है, जिसमें किसी भी कृति की भाषातात्त्विक, वैयाकरणिक, काव्यशास्त्रीय आदि प्रविधियों का समवेत अध्ययन किया जाता है, एक-एक पदावलि का विवेचन एवं विश्लेषण किया जाता है। उत्तराध्ययन केवल शुष्क दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादक ग्रन्थ नहीं, किन्तु यह श्रेष्ठ काव्य के सभी अंगो से परिपूर्ण है। माघ की यह उक्ति- 'क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः' इस ग्रन्थ में पद-पद पर घटित है। एक ओर इसमें श्रेष्ठ कवि हृदय से संभूत श्रुतिसुखद पदों का प्रयोग परिलक्षित होता है वहीं दूसरी ओर चेतन पर अचेतन के आरोप रूप उपचार वक्रता, रूपकात्मक प्रतीक आदि का उत्कृष्ट निदर्शन भी प्राप्त होता है। यथा - आरूढो सोहए अहियं, सिरे चूड़ामणि जहा ।२२/१०
वासुदेव के मदवाले ज्येष्ठ गन्धहस्ती पर आरूढ अरिष्टनेमि सिर पर चूड़ामणि की तरह सुशोभित हआ। चेतन (अरिष्टनेमि) पर अचेतन (चूड़ामणि) का यह उदाहरण उपचार वक्रता का श्रेष्ठ निदर्शन है। इसी प्रकार चोर के प्रतीक के रूप में 'इन्द्रिय' शब्द का नवीनतम प्रयोग हुआ है
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org