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श्लेष पर आधारित यह प्रतीक है। ‘पत्तं' के दो अर्थ होते हैं--पत्र/पंख और भिक्षा-पात्र । कवि अभिप्रेत संप्रेष्य कथ्य यह है कि जैसे पक्षी अपने पंखों को साथ लिए उड़ता है, इसलिए उसे पीछे की कोई चिन्ता नहीं होती। वैसे ही भिक्षु अपने पात्र आदि उपकरणों को जहां जाए वहां साथ ले जाए, संग्रह करके न रखे- पीछे की चिन्ता से निरपेक्ष होकर विहार करे। चेइए वच्छे (चैत्यो वृक्ष:)
___ कवि-मानस स्वभावत: प्रकृति का सहचर होता है। प्रकृति से उसका साहचर्य काव्यभाषा के लिए अनायास ही वरदान बन जाता है। प्रतीक के संदर्भ में भी प्रकृति के विभिन्न उपकरणों का संयोजन पर्याप्त सहायक है। 'नमिपव्वज्जा' अध्ययन में 'चेइए वच्छे' नमि का प्रतीक बनकर उभरा है
मिहिलाए चेइए वच्छे सीयच्छाए मणोरमे। पत्तपुप्फफलोवेए बहूणं बहुगुणे सया॥ उत्तर. ९/९
मिथिला में एक चैत्यवृक्ष था, शीतल छाया वाला, मनोरम, पत्र, पुष्प और फलों से लदा हुआ और बहुत पक्षियों के लिए सदा उपकारी।
चैत्यवृक्ष को नमि राजर्षि का प्रतीक बनाकर कवि का कहना है कि राजर्षि के शीतल, सुखद आश्रय में सभी मिथिलावासी सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हर दृष्टि से नगरवासियों के लिए राजर्षि आधार बना हुआ था।
गाथा में प्रयुक्त ‘बहूणं' शब्द भी चूर्णिकार के अनुसार द्विपद, चतुष्पद तथा पक्षियों का द्योतक है। कुमुयं (कुमुदं)
प्रकृति मनुष्य से भी अधिक संवेदनशील है। कवि-हृदय के अमूर्त उद्गारों की अभिव्यंजना के लिए विभिन्न प्रकृति-प्रतीक माध्यम बनते हैं। शरद्-ऋतु का कुमुद निर्लेपता का प्रतीक बना है
वोछिंद सिणेहमप्पणो कुमुयं सारइयं व पाणियं। से सव्वसिणेहवज्जिए समयं गोयम ! मा पमायए। उत्तर. १०/२८
जिस प्रकार शरद्-ऋतु का कुमुद जल में लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तू अपने स्नेह का विच्छेद कर निर्लिप्त बन। हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर।
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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