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लाढे (लाढ:)
आगमिक भाषा ऋषि-रचित होने से अध्यात्म-परक है। 'लाढ' मूल रूप में एक प्रदेश का नाम है, किन्तु यहां कष्टसहिष्णु के रूप में प्रयुक्त होने से काव्यजगत में उभरने वाला आगमकार का यह एकदम नया प्रतीक है
एग एव चरे लाढे अभिभूय परीसहे। गामे वा नगरे वावि निगमे वा रायहाणिए ।। उत्तर. २/१८
संयम के लिए जीवन-निर्वाह करने वाला मुनि परीषहों को जीतकर गांव में या नगर में, निगम में या राजधानी में अकेला (राग-द्वेष रहित होकर ) विचरण करे।
भगवान महावीर ने लाढ देश में विहार किया था, तब वहां अनेक कष्ट सहे थे। कभी शिकारी कुत्तों के तो कभी वहां के रुक्षभोजी लोगों के। आगे चलकर लाढ शब्द कष्ट सहने वालों के लिए श्लाघा-सूचक बन गया। संयमी जो कि कष्ट-सहिष्णु है, उसके लिए यहां लाढ शब्द का अर्थगर्भित प्रतीकात्मक प्रयोग हुआ है।
इसी आगम के १५/२ में लाढ का अर्थ- सत् अनुष्ठान से प्रधानकिया है।
इसी गाथा मे प्रयुक्त ‘एग' शब्द 'राग-द्वेष रहितता' का तथा जनता के मध्य रहता हुआ भी ‘अप्रतिबद्धता' का सूचक है। घयसित्त व्व पावए (घृतसिक्त: इव पावकः)
क्रोध की अभिव्यक्ति, दीप्ति/निर्वाण, तेजस्विता की अभिव्यक्ति के लिए 'अग्नि' प्रतीक सर्वप्रचलित है। स्वयं रचनाकार ने निर्वाण/दीप्ति अर्थ में 'घृतसिक्त-अग्नि' प्रतीक का प्रयोग किया है -
सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। निव्वाणं परमं जाइ घयसित्त व्व पावए ॥ उत्तर. ३/१२
शुद्धि उसे प्राप्त होती है, जो ऋजुभूत होता है। धर्म उसमें ठहरता है जो शुद्ध होता है। जिसमें धर्म ठहरता है वह घृत से अभिसिक्त अग्नि की भांति परम निर्वाण (समाधि) को प्राप्त होता है।
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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