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निष्कर्ष
शैलीविज्ञान की स्वरूप-परिकल्पना के अंतर्गत उसके आधारभूत तत्त्वों, अध्ययन-अनुसंधान के विविध आयामों के केन्द्र में जो एक वस्तु है, वह काव्यभाषा है। विशिष्ट प्रयोगों के कारण काव्यभाणा की सामान्य भाषा से विलक्षणता का अनुसंधान शैलीविज्ञान करता है। वह रचना में संप्रेष्य भावों का साक्षात् काव्यभाषा के विभिन्न तत्त्वों वक्रोक्ति, रस, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक आदि के द्वारा करता है। आगामी अध्यायों में काव्यभाषा के वैशिष्ट्य के अनुसंधायक इन्हीं तत्त्वों का उत्तराध्ययन के परिप्रेक्ष्य में विशद विवेचन काम्य है।
सन्दर्भ - १. पण्हावागरणाई, ६/१५ २. प्रमाणनयतत्त्वावलोक, ४/१ ३. भिक्षु न्याय कर्णिका, चतुर्थ विभाग, सू. ३ ४. अणुओगदाराई, सू. ५१ ५. समवाओ, समवाय १४/२ ६. समवाओ, समवाय १/२ ७. नंदी सूत्र ७३ ८. उत्तराध्ययन भूमिका, पृ. ८ ९. दसवेआलिय सुत्त, भूमिका पृ. ३ १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. १५७ ११. कषायपाहुड, जयधवला टीका सहित प्रथम अधिकार, पृ. २२, २३ १२. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३;
कमउत्तरेण पगयं आयारस्सेव उवरिमाइं तु।
तम्हा उ उत्तरा खलु अज्झयणा हुति णायव्वा।। १३. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ५ १४. उत्तर. ३६/२६८ १५. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ४
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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