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४. 'कुप्पवयणपासंडी' (२३/६३)
प्राचीन साहित्य में पाषण्ड का अर्थ-श्रमण संप्रदाय है। यहां वृत्तिकार ने इसका अर्थ व्रती क्रिया है 'पाषण्डिनो व्रतिनः।'०
प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ किसी एक संप्रदाय या विचारधारा को मानने वाला दार्शनिक किया जा सकता है। पाखण्ड का अर्थ वर्तमान में ढोंग, दिखावा है। ५. रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे (३२/३७)
___ मुग्ध शब्द का मूल अर्थ 'मूर्ख' था। अब इसका अर्थ मोहित होना हो गया है। अर्थोत्कर्ष
___ अर्थविकास की उपर्युक्त तीन दिशाओं में शब्दों में अर्थपरिवर्तन से उत्कर्ष भी आया है और कुछ अर्थों में अपकर्ष भी हुआ है। अर्थ में उत्कर्ष आने वाले शब्दों को अर्थोत्कर्ष कहा है| यथा-कुसला, साहसिओ आदि। अर्थापकर्ष
अर्थपरिवर्तन से जहां अर्थ में अपकर्ष (हीनता) आया है, उन्हें अर्थापकर्ष कहा गया है। जैसे-पासंडी, मणूसा।
इस प्रकार उत्तराध्ययनमें अर्थ-विज्ञान के सभी तत्त्व प्राप्त हैं।
भाषा और भाव का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। रचनाकार के भावों की संवाहकता में उत्तराध्ययन में प्रयुक्त भाषा ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उत्तराध्ययन न केवल धर्मकथा, उपदेश, आचार और सिद्धान्त की दृष्टि से उपयोगी है अपितु इसमें भाषाविज्ञान के अध्ययन के लिए भी प्रचुर सामग्री प्राप्त है। भाषा के विशिष्ट प्रयोग भी उपलब्ध हैं। स्वरों का विकास, स्वरभक्ति, समीकरण, विषमीकरण, संज्ञा, सर्वनाम, उपसर्ग, क्रियापद आदि का भी सहज समावेश है। अर्थविज्ञान की दृष्टि से भी यह महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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