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________________ जब इन्द्र नमि को कोशागार का संवर्धन कर फिर दीक्षित होने के लिए कहते हैं 'कोसं वड्डावइत्ताणं तओ गच्छसि खत्तिआ।' (९/४६) तब संतोष के संवर्धन रूप आत्मधर्म की बात राजा के अनासक्त व्यक्तित्व का परिचय कराती है। राजा कहता है 'इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया' (९/४८) इच्छा आकाश के समान अनंत है। संतोष त्याग में है, भोग में नहीं। लोभी पुरूष को बहुत धन से भी कुछ नहीं होता। हमारी आवश्यकताएं तो सीमित हैं किन्तु आकाक्षाए विस्तृत हैं। इसलिए धन-धान्य से परिपूर्ण पृथ्वी भी यदि किसी को मिल जाए, तो भी उससे उसको परितोष नहीं होता। इस प्रकार राजा का अनासक्त चित्त किसी भी प्रकार के सांसारिक प्रलोभनों में नहीं फंसता है, निर्लेपता का परिचय देता है। सांसारिक जीवन का त्याग करने में तत्पर नमि की इन्द्र स्वयं परीक्षा करता है। पर वे संयम में अविचल भाव से रहे। उनके कषायों की उपशांतता को देख इन्द्र को भी कहना पड़ा कि तुमने क्रोध को जीता है, मान को पराजित किया है और लोभ को वश में किया है। आपकी क्षमाशीलता, नि:संगता आश्चर्यकर है। नमि अपनी आत्मा को संयम के प्रति समर्पित कर देता है। इससे स्पष्ट होता है कि साधक के विविध गुण नमि के व्यक्तित्व में समाहित हैं, जो उन्हें आदर्श साधक के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। इस प्रकार 'नमि पव्वज्जा' अध्ययन में नमि को सांसारिक आकर्षणों में लुभाने के प्रयास में परीक्षक की दृष्टि से दैविक पात्र इन्द्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इन्द्र निजी संपत्ति, स्वजन तथा देशरक्षा के लिए, अपराधी व्यक्तियों का निग्रह, राजाओं पर विजय, कोशागार का संवर्धन आदि राज्यधर्म के विविध कर्तव्यों की नमि को याद दिलाता है। नमि उन कर्त्तव्यों के प्रतिपक्ष में आत्मधर्म की बात कर इन्द्र की परीक्षा में उत्तीर्ण होता है। आखिर इन्द्र नमि की संयमी चेतना से प्रभावित हो मधुर शब्दों में स्तुति कर चला जाता है। इन्द्र और नमि के बीच हुए संवाद से यहां धर्मदर्शन के तथ्यों का उद्घाटन हुआ है। इसके अतिरिक्त और भी कई प्रसंग संवाद शैली के माध्यम से धर्मदर्शन के तथ्यों का उद्घाटन करने वाले हैं। यथा- चित्त और संभूत (अध्ययन १३), भृगु और भृगुपुत्र (अध्ययन १४) केशीकुमार और श्रमण गौतम आदि (अध्ययन २३)। उत्तराध्ययन में चरित्र स्थापत्य 191 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002572
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitpragyashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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