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राजन्य वर्ग के पात्र
राजर्षि नमि, इषुकार, कमलावती, राजा संजय, बलभद्र, मृगारानी व मृगापुत्र, श्रेणिक (अध्ययन २०), अरिष्टनेमि, राजीमती व रथनेमि आदि राजन्य वर्ग के पात्रों का इसमें वर्णन है। ब्राह्मण वर्ग के पात्र
सोमदेव ब्राह्मण व पत्नी भद्रा (अध्ययन १२), भृगु पुरोहित, पत्नी यशा व पुरोहित पुत्र आदि ब्राह्मण वर्ग के पात्रों का भी विशेष रूप से उल्लेख है। मानवेतर पात्र
इन्द्र (अध्ययन ९), यक्ष (अध्ययन १२), देव (अध्ययन १२)
यहां कुछ पात्रों का विस्तृत चरित्र-चित्रण अभिधेय है - १. नमि राजर्षि एवं इन्द्र
पात्रों के चरित्र विकास में परिस्थितियों का भी प्रभाव पड़ता है। 'जहां द्वन्द्व है वहां दु:ख है, अकेलेपन में सुख है' इस विरक्त भाव से प्रबुद्ध राजा नमि प्रवजित होने का दृढ़ संकल्प करता है। नमि को प्रव्रजित होते देख इन्द्र ब्राह्मण वेश में नमि को कर्त्तव्य-बोध देता है और राजा अध्यात्म की गहरी बात बताता है। यहां वार्तालाप के माध्यम से मनःस्थिति को प्रस्तुत करने की कला का वैशिष्ट्य संवाद-योजना द्वारा प्रकट हुआ है।
साधना की भूमिका है - एकत्व की साधना, जहां केवल आत्मा ही शेष रहती है।
इन्द्र कहता हैएस अग्गी य वाऊय एयं डज्झइ मंदिरं। भयवं! अंतेउरं तेणं कीस णं नावपेक्खसि ॥(९/१२)
यह अग्नि है और यह वायु है। राजन ! आपका यह मन्दिर जल रहा है, आप अपने रनिवास की ओर क्यों नहीं देखते ? प्रत्युत्तर में राजा इन्द्र को एकत्व का बोध देता है -
मिहिलाए डज्झमाणीए न मे डज्झइ किंचण॥ उत्तर. ९/१४
उत्तराध्ययन में चरित्र स्थापत्य
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