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इस प्रकार उत्तराध्ययन में प्रयुक्त अलंकारों के अनुशीलन से लगता है कवि की काव्य-प्रतिभा ने प्रसंग के अनुकूल अनेक अलंकारों का विनियोजन किया है। इस ग्रन्थ में ये अलंकार स्वतः स्फूर्त भाषा के अंग बनकर आए हैं तथा भाषा को काव्यात्मक रूप देने में अद्भुत योगदान दिया है। साथ ही तथ्य की अभिव्यक्ति, सहजबोध एवं बिम्ब-निर्माण में भी सहायक के रूप में अलंकारों का उपयोग हुआ है। सन्दर्भ :
१. आप्टे डिक्शनरी, पृ.८४९ २. तैतिरीय उपनिषद्, २.७ पृ. १७३
नाट्यशास्त्र, ६/१६ ४. नाट्य-शास्त्र, पृ.७१
साहित्य- दर्पण, ३/१७४ ६. साहित्य-दर्पण, ३/१७५ ७. साहित्य-दर्पण, ३/२८ पृ.९५ ८. रसतरंगिणी, द्वितीय तरंग ९. रसतरंगिणी, द्वितीय तरंग १०. दशरूपक, ४/३ ११. काव्यप्रकाश, ४/३१-३४ १२. संगीत सुधाकर, अध्याय ४ १३. 'रस्यते आस्वाद्यते इति रस:' । स्थानांग टीका पत्र, २३ १४. अनुयोगद्वारसूत्रम्, पृ. ३२१, ३२३ १५. अणुओगदाराइंपृ. १९३ १६. सरस्वतीकण्ठाभरण, ५/१-३ १७. नाट्यशास्त्र, ६/५० १८. दशरूपक, ४/८१ १९. सरस्वती कंठाभरण, 5७६ २०. नाट्यशास्त्र, पृ.७५ २१. नाट्यशास्त्र, पृ. ७६ २२. अणुओगदाराई, पृ. १९४ २३. नाट्यशास्त्र, पृ७७
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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