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१. प्राणियों के प्राणों का हरण नहीं करके अभयदाता बनो।
२. अनित्यता की विस्मृति ही मनुष्य को हिंसा की ओर ले जाती है। इसलिए निरन्तर स्मृति बनी रहे—संसार अनित्य है।
उपर्युक्त प्रसंग में अहिंसा स्वाभाविक धर्म है और हिंसा अस्वीकार्य धर्म है, इस तथ्य के साथ साधु जीवन की सहजता भी अभिव्यंजित है।
'वंतासी पुरिसो रायं न सो होइ पसंसिओ' उत्तर.१४/३८ राजन! वमन खाने वाले पुरुष की प्रशंसा नहीं होती।
भृगु पुरोहित के प्रव्रजित होने के बाद उनकी संपत्ति पर राजा अधिकार करना चाहता है तब कमलावती का यह स्वाभाविक कथन राजा को आत्मविद्या की ओर अग्रसर करता है। * अनुप्रास
शब्दालंकारों में अनुप्रास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'अनुप्रासः शब्दसाम्यं वैषम्येऽपि स्वरस्य यत्७३ स्वर की विषमता होने पर भी जो शब्दसाम्य होता है, वह अनुप्रास अलंकार है। समान ध्वनियों, अक्षरों या वर्णों की पुनरावृत्ति अनुप्रास है। उच्चारण का सादृश्य विधान, भाषा में लय और साम्य अनुप्रास का मूल है। इसमें स्वरों के समान न होने पर भी व्यंजनों की समानता काम्य है।७४
नाद-सौन्दर्य व श्रुति मधुरता ही इसका प्राण है। कुशल ग्रन्थकार के ग्रन्थ में यह शब्द-सौन्दर्य अनायास ही मिलता है। उत्तराध्ययन में अनेक स्थलों पर अनुप्रास की रमणीयता विद्यमान हैं। इसके अनेक भेद हैं। वृत्त्यनुप्रास
एक या अनेक व्यंजनों की एक या अनेक बार सान्तर या निरन्तर आवृत्ति को वृत्त्यनुप्रास कहते हैं---
अनेकस्यैकधा साम्यमसकृद्वाष्यनेकधा। एकस्य सकृदप्येष वृत्त्यनुप्रास उच्यते॥७५ उत्तराध्ययन के अनेक प्रसंगों में वृत्त्यनुप्रास की रमणीयता विद्यमान
कालेण निक्खमे भिक्खू कालेण य पडिक्कमे। अकालं च विवज्जित्ता काले कालं समायरे॥ उत्तर. १/३१
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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