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और पराक्रमशीलता का उद्घाटन कर दोनों में समानता खोजने का सफल उपक्रम हुआ है। मृत्यु का ग्रास
'जहेह सीहो व मियं गहाय मच्चू नरं नेइ हु अंतकाले' उत्तर. १३/२२
जिस प्रकार सिंह हिरण को पकड़ कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है।
मृत्यु की निश्चितता, अकाट्यता दर्शाने हेतु सिंह को उपमान बनाया गया है। यहां मृत्यु की उपमा सिंह से तथा मनुष्य की उपमा मृग से की गई है। सिंह के पैरों में आया हुआ मृग बच नहीं सकता, सिंह उसे निगल जाता है। वैसे ही यमराज के हस्तगत कोई भी प्राणी नहीं बच सकता, न उसे कोई बचा सकता है। उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है-इस तथ्य का प्रतिपादन सिंह के उपमान से हुआ है। पूर्णोपमा का यह उदाहरण हृदयग्राही है।
आचारांग वृत्ति में भी मृत्यु की सर्वगामिता बताते हुए कहा है। वदत यदीह कश्चिदनुसंतत सुख परिभोगलालितः।
प्रयत्नशतपरोऽपि विगतव्यथमायुरवाप्तवान्नरः ॥६२ नासते विद्यते भावो ....
जहा य अग्गी अरणीउसंतो खीरे घयं तेल्ल महातिलेसु। एमेव जाया ! सरीरंसि सत्ता संमुच्छई नासइ नावचिठे॥
उत्तर. १४/१८ पुत्रों ! जिस प्रकार अरणि में अविद्यमान अग्नि उत्पन्न होती है, दूध में घी और तिल में तेल पैदा होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं। शरीर का नाश हो जाने पर उसका अस्तित्व नहीं रहता।
आत्मा के विषय में संदिग्ध होकर पुत्र संयम स्वीकार न करे, इसलिए आत्मा के नास्तित्व का दृष्टिकोण उपस्थित करते हुए देहासक्त इषुकार नृप की पुत्र के प्रति यह उक्ति है। इसमें शरीर की उपमा अरणि आदि से तथा जीव की उपमा अग्नि आदि से देकर असद्वादियों के अभिमत का प्रतिपादन किया गया है।
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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