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अनेक रमणीय उपमाएं प्रयुक्त हैं। सूत्रकृतांग, ज्ञाता आदि अंगागमों में अनेक प्रकार की उपमाओं का विनियोजन मिलता है।
उपमा-वैशिष्ट्य उत्तराध्ययन काव्य का महत्त्वपूर्ण अंग है। उत्तराध्ययन में रचनाकार का कल्पना क्षेत्र बहुत विस्तृत है। जंगम-स्थावर के व्यापक जगत का कविदृष्टि ने स्पर्श किया है। इसमें प्रयुक्त उपमान प्रत्यक्ष जगत तक ही सीमित नहीं परोक्ष व अन्तर्जगत से भी आए हैं। कहीं पर मूर्त उपमेय के लिए अमूर्त उपमान का, तो कहीं अमूर्त उपमेय के लिए मूर्त उपमान का प्रयोग हुआ है। उपमा शब्द का प्रयोग भी सातवें, बत्तीसवें अध्ययन में हुआ है। इससे अलंकारों की प्राचीनता व विशेष रूप से उपमा अलंकार की प्राचीनता का सहज ही दर्शन हो जाता है। लगता है जबसे साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ है, उपमाएं उसके साथ चली हैं।
उत्तराध्ययन में प्राप्त उपमानों को निम्न वर्गों में विभक्त किया जा सकता है
१. जंगम वर्ग-तिर्यञ्च, मनुष्य, देव आदि। २. स्थावर वर्ग- वनस्पति जगत, अग्नि, द्वीप, समुद्र आदि। ३. अचेतन वर्ग- अस्त्र-शस्त्र, धातु-पदार्थ, खाद्य-पदार्थ आदि । उत्तराध्ययन में प्रयुक्त उपमा अलंकार के कुछ उदाहरण द्रष्ठ्य हैकेन्द्र में कौन ? एवं धम्मं विउक्कम्म अहम्मं पडिवज्जिया। बाले मच्चुमुहं पत्ते अक्खे भग्गे व सोयई॥ उत्तर. ५/१५
इसी प्रकार धर्म का उल्लंघन कर अधर्म को स्वीकार कर मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ अज्ञानी धुरी टूटे हुए गाड़ीवान की तरह शोक करता है।
यहां धर्म को गाड़ीवान की सार्थक उपमा देकर कवि कहना चाहते हैं कि गाड़ीवान को गाड़ी ही लक्षित मंजिल की ओर ले जाती है, उसका भार हल्का करती है। किन्तु यदि धुरा-अक्ष टूटा हुआ है तो गाड़ीवान के लिए वही धुरा शोक का कारण बन जाता है, वह असहाय हो जाता है। वैसे ही जो धर्म को स्वीकार नहीं करता है, उसे संसार-चक्र में भटकना पड़ता है। धर्म को स्वीकार करने वाला ही आगे बढ़ सकता है। केन्द्र में धर्म रहे तो वह सुरक्षित रह सकता है, अतः केन्द्र में धर्म का रहना जरूरी है।
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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