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'मेरे मन में कोई प्रद्वेष न पहले था, न अभी है और न आगे भी होगा। किंतु यक्ष मेरा वैयावृत्य कर रहे हैं, इसलिए ये कुमार प्रताड़ित हुए।'
यहां 'वासीचंदणकप्पो य' यह आगमवाक्य हरिकेशी पर पूर्णतः घटित हो रहा है। समता का परिपाक हो जाने पर चित्त विषयों की आसक्ति से शून्य हो जाता है। इस शून्यता से योग विशद/निर्मल बन जाते हैं जिससे वासीचंदन-तुल्यता की स्थिति निर्मित होती है। मुनि के योगों की निर्मलता से शांत-रस प्रतिक्षण सहचारी बना रहा। मुनि हरिकेशी का शान्त अंतःकरण प्रतिबिम्बित हो रहा है। संयम प्रधान शम यहां स्थायीभाव है। सहज संयमचेतना, वैराग्य, चित्तशद्धि आदि आलम्बन विभाव हैं। कषाय का उपशमन उद्दीपन विभाव है। ओज, तेज, सौम्य, शांत मुख-मुद्रा आदि अनुभाव हैं। हर्ष, द्युति, निर्वेद आदि संचारीभाव हैं। इन सबका संयोग यहां शांत-रस का सृजन कर रहा है।
भृगु पुरोहित का पूरा परिवार दीक्षित हो गया-यह बात सुनकर परम्परा के अनुसार राजा इषुकार ने सम्पूर्ण संपत्ति पर अधिकार करना चाहा। उस समय रानी कमलावती ने राजा को संसार की क्षण-भंगुरता का उपदेश दिया, वहां शान्त-रस की सरिता प्रवाहित करने में तन्मय होकर कमलावती कहती है -
मरिहिसि राय! जया तया वा मणोरमे कामगुणे पहाय। एक्को हु धम्मो नरदेव! ताणं न विज्जई अन्नमिहेह किंचि||
उत्तर. १४/४० राजन! इन मनोरम कामभोगों को छोड़कर जब कभी मरना होगा। हे नरदेव! एक धर्म ही त्राण है। उसके सिवाय कोई दूसरी वस्तु त्राण नहीं दे सकती।
रानी के उपदेश से राजा का सोया हुआ पौरूष जाग उठा। हृदय संवेग/विराग से भर गया। दोनों प्रवजित हो गये। दुःख का अंत करके मरण-भय को समाप्त कर दिया।
शान्त-रस का धर्म-भावना से घनिष्ठ सम्बन्ध है। यहां शान्तरस की सुरभि फैलाने में कमलावती आलम्बन विभाव है। संसार की असारता, अशरणता का उपदेश उद्दीपन विभाव हैं। अत्राणता का अनुभव करना, संयम स्वीकारना आदि अनुभाव हैं। निर्वेद, हर्ष आदि संचारी भावों से पुष्ट 'शम' स्थायी भाव के कारण राजा-रानी शाश्वत शांत-रस में प्रतिष्ठित हो गये।
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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