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अवहेडियपिट्ठसउत्तमंगे पसारिया बाहु अकम्मचेटे। निब्भेरियच्छे रुहिरं वमंते उर्द्धमुहे निग्गयजीहनेत्ते॥ उत्तर . १२/२९
उन छात्रों के सिर पीठ की ओर झुक गए। उनकी भुजाएं फैल गई। वे निष्क्रिय हो गये। उनकी आंखें खुली की खुली रह गई। उनके मुंह से रुधिर निकलने लगा। मुंह ऊपर को हो गये। उनकी जिह्वा और नेत्र बाहर निकल आए।
उक्त प्रसंग में भिक्षा के लिए आए हुए हरिकेशी ऋषि को कुमार पीटने लगे- यह देखकर भद्रा ने कहा इनकी अवहेलना मत करो। कहीं ये अपने तेज से तुम लोगों को भस्मसात् न कर डाले। भद्रा के वचन सुनकर यक्ष ने ऋषि की परिचर्या करने के लिए कुमारों को भूमि पर गिरा दिया तथा आकाश मे स्थिर होकर उनको मारने लगे। यक्ष के रौद्र रूप के कारण कुमारों की दयनीय स्थिति बनी। इसलिए यहां रौद्र-रस की उपचिति हुई है।
यहां अपमान से रौद्र-रस का स्थायी भाव क्रोध उत्पन्न हुआ है। कुमार रौद्र-रस के आलम्बन विभाव हैं । डण्डों, चाबुकों से ऋषि को पीटना उद्दीपन विभाव हैं। भुजाएं फैलाना, निष्क्रिय होना, मुंह से रुधिर निकलना, जीभ का बाहर आ जाना आदि अनुभाव हैं। उद्वेग, आवेग आदि संचारी भावों से पोषित 'क्रोध' रौद्र-रस दशा को प्राप्त है।
वीररस
साहित्य शास्त्र का प्रमुख रस वीररस है। भरत के अनुसार वीररस का स्थायी भाव उत्तम प्रकृति का उत्साह है- अथ वीरो नामोत्तमप्रकृतिरूत्साहात्मकः। इसका आश्रय उत्तम पात्र में होता है।
अनुयोगद्वार के अनुसार परित्याग, दान, तपश्चरण और शत्रु जनों के विनाश में वीररस उत्पन्न होता है। अननुशय, गर्व या पश्चात्ताप न करना, धृति और पराक्रम वीररस के लक्षण हैं।२४
भरतमुनि ने वीररस के युद्धवीर, दानवीर और धर्मवीर-ये तीन भेद माने हैं। विश्वनाथ ने दानवीर, धर्मवीर, युद्धवीर और दयावीर के रूप में चार प्रकार का वीररस स्वीकार किया हैं।
अनुयोगद्वार में उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बताया गया
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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