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प्रकरण ३ जैन आगमों में स्वर्ग ( देवलोक)
स्वर्ग
विज्ञानवाद के इस युग में धर्म, परलोक, आत्मा और परमात्मा को एवं वैज्ञानिक पद्धति द्वारा "स्वर्ग और नरक' को सिद्ध करना-कराना आज सरल नहीं । किन्तु जगत के प्रत्येक धर्ममें स्वर्ग-नरक की मान्यता कोई न कोई स्वरूप में प्राप्त होती ही है। चावकि दर्शन को छाड भारतीय सभी धर्म-दर्शनों में स्वर्गनरक की मान्यता मिलती है । जैन धर्म में स्वर्ग-नरक के विषय में विस्तृत चर्चा मिलती है । यहाँ इस प्रकरण में हम स्वर्ग के विषय में जैन धर्म साहित्य-खास कर के आगमों में प्राप्त सामग्री का विश्लेषण करेंगे ।
संसार के त्रिविध तापों के अनेकविध पापों से आत्मा को दूर रखकर उसको उर्ध्वगति प्राप्त करानेवाली एवं आत्मा को अधःपतन में से उद्धार करानेवाली जो कोई भी शक्ति हो तो वह है धर्म । आत्मा के उर्ध्वगमन के लिए अनंत संसार के परिभ्रमण से आत्मा को दूर रखने के लिए और केवल मोक्ष की प्राप्ति के लिये ही जूझता हुआ कोई धर्म/दर्शन हो तो वह है 'जैन दर्शन' ।।
सामान्यतः किसी की मृत्यु के समाचार पेपर या पत्र में पढ़ते है कि इनका स्वर्गवास हो गया है । तब विचार आता है-यह जीव कहाँ गया होगा ? स्वर्ग में या नरक में ? स्वर्ग और नरक का स्वरूप कैसा होगा ? वहाँ कैसी व्यवस्था होगी ? ऐसे एक मिनिट के लिए सोचते हैं । मानव हमेशा ऊँचा ही देखता है, इसलिए वह सोचता है कि ये जीव उर्ध्वगति में ही गया होगा । पर 'अंते मति सा गति' अंत समय में जैसी विचारधारा या लेश्या होती है, उसी के अनुसार ही उसकी गति होती है । जरूरी नहीं कि वह स्वर्ग में ही गया होगा । वह नरक में भी जा सकता है । यह जैन कर्म सिद्धांत कहता है ।
प्रत्येक प्राणी सुख को चाहता है । सुख दो प्रकार के हैं१) भौतिक २) आध्यात्मिक
भौतिक सुख का सर्वोच्च स्थान है स्वर्ग । ब्राह्मण एवं श्रमण परंपरा दोनों ही यह मान्य करती है कि मनुष्य लोक की अपेक्षा स्वर्ग की सुख-समृद्धि विशेष
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