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में घिरा हुआ है । सुख और दुःख धुप-छाया की तरह प्रतिपल प्राप्त करता ही है । कुकृत्य करने से, पाप करने से कटुक, अनिष्ट, भयंकर फल भोगता है । इसी तथ्य का विश्लेषण इस ग्रंथ में प्रस्तुत करने का मैंने प्रयास किया है ।
प्रभु कृपा के बिना कोई भी कार्य संभव नहीं हो सकता, तथापि इस शोध कार्य के विषय चयन में सहायता और सत्परामर्श के लिए दिव्य आशीर्वाद-दात्री प्रव. पू. श्री विचक्षणश्रीजी म.सा. ने मुझे परोक्ष रूप से बल दिया । इस ग्रन्थ निर्माण में प. पू. संघ सघटन प्रेरिका मरूवर्या श्री मनोहरश्रीजी. म. सा, पू. विदुषीवर्या श्री मुक्तिप्रभाश्रीजी म. सा., शोधग्रंथ की आद्यप्रेरिका पू. सुरेखाश्रीजी म. सा. ने इस कार्य में सतत प्रेरणा दी । पू. प्रशमरसाश्रीजी म. सा. आदि सभी भगिनियों की सहायता के फलस्वरूप ही यह ग्रन्थ पूर्णता की ओर अग्रसर हुआ
प्रस्तुत शोधग्रंथ के विषयचयन से सम्पूर्ण पूर्णाहूति तक मेरे मार्गदर्शक गुजरात युनि. भाषा-साहित्य भवन के प्राकृत-पालि विभाग के पूर्व अध्यक्ष, साहित्यरसिक, आगमज्ञाता, शान्तस्वभावी डॉ. रमणीकभाई म. शाह ने सेवा निवृत्त होने पर भी अपने अमूल्य समय में मुझे मार्गदर्शन और कुशल निर्देशन दिया है । इसलिए आपका आभार व्यक्त करती हूँ।
प्राकृत विभाग के अध्यक्ष डॉ. सलोनीबेन जोशी; संस्कृत और प्राकृत के ज्ञाता अमृतभाई पटेल एवं प्राचीन लिपि विशेषज्ञ लक्ष्मणभाई भोजक, उजमशीभाई कापडिया, डॉ. पारुलबेन, डॉ. वर्षाबेन ग. जानी, तथा ग्रंथपाल करसनभाई वणकर का भी सहयोग मिला। एवं महानिबन्ध के संशोधन में लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर के ग्रंथालय से मुझे जो सहायता प्राप्त हुई है, इन सभी का आभार व्यकत करती हूँ।
खरतरगच्छ के ट्रस्टीगण तथा पेढी के मुनिम पुनमभाई एवं शशीकांतभाई शाह भी इसमें बहुत मददरूप रहे हैं । रमणीय ग्राफीक्स ने भी सुंदर प्रकार से छापने में सहयोग दिया ।
अन्त में एकबार पुनः उन सभी महानुभावों के प्रति साधुवाद व्यक्त करती हूँ जो प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से सहयोगी रहे है ।
प्रस्तुत शोधग्रंथ में कोई त्रुटि रही हो तो उसके लिए मिच्छामी दुक्कडम् ।
–हेमरेखाश्री
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