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श्रुतियों एवं उपनिषद में इसका साक्षात् निर्देश किया है, तो जीवन्मुक्ति का निषेध तो किया ही नहीं जा सकता । वहाँ स्पष्ट कहा है कि जब मानव हृदय में स्थित सभी वासनाओं से मुक्त हो जाता है तो मनुष्य अमर हो जाता है, यहीं पर ब्रह्म का अनुभव करता है ।
वास्तव में पुनः पुनः ईश्वर का अभ्यास करने से संसार दशा में तिरोहित हुए आवरणों का नाश होने पर धर्म अभिव्यक्त हो जाता हैं । तब जीवन अवस्था में ही जीव ब्रह्म हो जाता है। इस प्रकार सभी आस्तिक और नास्तिक दर्शनों द्वारा जीवन्मुक्ति को स्वीकार किया गया हैं सभी दर्शनों ने मुक्तावस्था से पूर्व यह जीवन्मुक्तावस्था को अनिवार्य मान्य किया है। किन्तु मुक्तावस्था के पश्चात् उनकी स्थिति है या नहीं, इसका विवेचन जितनी सूक्ष्मता से जैन दर्शन में किया गया है, इतर मतों में उसको उतना स्थान नहीं दिया गया है । जैन परंपरा का यह मौलिक चिंतन है। मुक्त होना, उसकी प्रक्रिया, उनका ज्ञान-दर्शन-सुख, उसकी स्थिति, अवगाहना (स्वकायास्थिति), उसका प्रतिष्ठान आदि अनेक सिद्धावस्था एवं सिद्धिगति का निरूपण अत्यन्त गहनता से विशद रूप से जैन दर्शन में किया है। इस प्रकार मुक्तावस्था का विश्लेषण अन्य किसी धर्म/ दर्शन में दृष्टिगत नहीं होता । आत्मा की मुक्तावस्था को सर्व दर्शनोमें एकमत से अंगीकार करके भी मुक्तावस्था के स्वरूप-स्थिति आदि का जिक्र नहीं किया गया । मात्र जैन परंपरा इसका विशद वर्णन प्रस्तुत करती है।
इस प्रकार यहाँ विस्तृत रूप से तुलनात्मक दृष्टिकोण से लोक स्वरूप की अवधारणा प्रस्तुत की गई है । अब स्वर्ग विषयक मान्यता का उल्लेख किया जा रहा है ।
टिप्पण :१. जैन तत्त्वज्ञान चित्रावली प्रकरण १. पृ० १० २. तिलोयपण्णती, अ० ९, गा० १३७-३८ । उब्भिय दलेक्कमुखवद्धसंचयसण्णिहो हवे
लोगो (त्रिलोकसार गा० ६) ३. चोद्दस रज्जूदयो लोगो (त्रिलोकसार गा० ६) जगसेढिसत्तभागो रज्जु । (त्रिलोकसार
गा० ७) चउदसरज्जू लोओ बुद्धिकओ होई सत्तराजुधणो । कर्मग्रन्थ. ५-९७. सयंभुपरिमंताओ अवंरतो जाव रज्जूमाइओ । (प्रवचनसारो० १४३, ३१)
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