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________________ ४२ या प्रकाश - स्वभावी हैं, अत: इन्हें ज्योतिष्क - लोक कहते हैं । और उनमें रहने वाले ज्योतिष्क देवों के निवास के कारण उक्त क्षेत्र ज्योतिष्क - लोक कहलाता है । तिरछे रूप में ज्योतिष्क - लोक स्वयम्भूरमण समुद्र तक फैला हुआ है । इसमें ७९० योजन की ऊँचाई पर सर्वप्रथम ताराओं के विमान हैं, उनसे १० योजन की ऊँचाई पर सूर्य का विमान है। सूर्य से ८० योजन ऊपर चन्द्र का विमान है । चन्द्र से ४ योजन ऊपर नक्षत्र हैं । नक्षत्रों से ४ योजन ऊपर बुध का विमान है । बुध से ३ योजन ऊपर शुक्र का विमान है । शुक्र से ३ योजन ऊपर गुरू का विमान है । गुरु से ३ योजन ऊपर मंगल का विमान है । और मंगल से ३ योजन ऊपर शनैश्चर का विमान है । इस प्रकार सर्व ज्योतिष्क विमान-समुदाय एक सौ दस योजन के भीतर पाया जाता है । I मध्य-लोकवर्ती तीसरे पुष्कर- द्वीप के मध्य में जो मानुषोत्तर पर्वत है, वहाँ तक का क्षेत्र मनुष्यलोक कहलाता है । इस मनुष्यलोक के भीतर सर्व ज्योतिष्कविमान मेरू की प्रदक्षिणा करते हुए निरन्तर घूमते रहते हैं । यहाँ पर सूर्य के उदय और अस्त से ही दिन-रात्रि का व्यवहार होता है । मनुष्यलोक के बाहरी भाग से लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र तक के असंख्यात योजन विस्तृत क्षेत्र में जो असंख्य ज्योतिष्क विमान है वे घूमते नहीं, किन्तु सदा अवस्थित रहते हैं । जम्बूद्वीप में मेरू के चारों और १९२१ योजन तक ज्योतिष्क - मण्डल नहीं है । लोकान्त में भी इतने ही योजन छोड़कर ज्योतिष्क - मण्डल अवस्थित है । इसके मध्यवर्ती भाग में यथासंभव अन्तराल के साथ सर्वत्र वह फैला हुआ है । जैन मान्यता के अनुसार जम्बूद्वीप में २ सूर्य और २ चंद्र हैं । एक सूर्य मेरू पर्वत की पूरी प्रदक्षिणा दो दिन रात में करता है । इसका परिभ्रमण-क्षेत्र जम्बूद्वीप के भीतर १८० योजन और लवण - समुद्र के भीतर ३३० १ योजन है I सूर्य के घूमने के मण्डल १८३ हैं। एक मण्डल से दूसरे मण्डल का अन्तर दो योजन का है । इस प्रकार प्रथम मण्डल से अन्तिम मण्डल तक परिभ्रमण करने में सूर्य को ३६६ दिन लगते हैं । सौर मण्डल के अनुसार एक वर्ष में इतने ही दिन होते हैं । चन्द्र के परिभ्रमण के मण्डल केवल १५ हैं । चन्द्र को भी मेरू की एक प्रदक्षिणा करने में दो दिन-रात से कुछ अधिक समय लगता है, क्योंकि उसकी गति सूर्य से मन्द है । इसी कारण से चन्द्र के उदय में सूर्य की अपेक्षा आगे-पीछापन दिखाई देता है । एक चन्द्र अपने १५ मंडलो में चन्द्रमास में १४ मंडल ही चलता है, अत: चन्द्रमास के अनुसार वर्ष में ३५५ या Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002570
Book TitleJain Agamo me Swarg Narak ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemrekhashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year2005
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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