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नहीं आ जा सकते हैं ।१३
पुष्कर द्वीप को घेर कर उससे दूने विस्तार वाला पुष्करोद समुद्र है । पुनः उसे घेर उत्तरोत्तर दूने-दूने विस्तार वाले वरूणवर द्वीप-वरूणवर समुद्र, क्षीरवरद्वीप-क्षीरोदसागर, घृतवरद्वीप-घृतवर समुद्र, क्षोदवरद्वीप-क्षोदवर समुद्र, नन्दीश्वरद्वीप-नन्दीश्वरवर समुद्र आदि नाम वाले असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं । सबसे अन्त में असंख्यात योजन विस्तृत स्वयम्भूरमण समुद्र है ।
इस असंख्यात द्वीप-समुद्रों वाले मध्य लोक के ठीक मध्य में जो एक लाख योजन विस्तृत जम्बूद्वीप है, उसके भी मध्यभाग में मूल में दस हजार योजन विस्तार वाला और एक लाख योजन ऊँचा मेरू पर्वत है । इसके उत्तर दिशा में अवस्थित उत्तरकुरू में एक अनादिनिधन पार्थिव जम्बू-वृक्ष है, जिसके निमित्त से ही इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा है। इस द्वीप का विभाजन करने वाले पूर्व से लेकर पश्चिम तक लम्बे छह वर्षधर पर्वत हैं-हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रूक्मी और शिखरी । इन वर्षधर पर्वतों से विभक्त होने के कारण जम्बूद्वीप के सात विभाग हो जाते हैं, इन्हें वर्ष या क्षेत्र कहते हैं । इनके नाम दक्षिण की
ओर से इस प्रकार हैं-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत वर्ष । इनमें विदेह क्षेत्र के मध्य भाग में मेरू पर्वत है । इसके दक्षिणी भाग में भरत आदि तीन क्षेत्र हैं और उत्तरी भाग में रम्यक आदि तीन क्षेत्र हैं ।१४
कर्मभूमियाँ और अकर्मभूमियाँ उपर्युक्त सात क्षेत्रों में से भरत, ऐरावत, और विदेहक्षेत्र (देवकुरू और उत्तरकूरू को छोड़कर) को कर्मभूमि कहा जाता है, क्योंकि यहाँ के मनुष्य असि, मषि, कृषि आदि कर्मों के द्वारा अपना जीवन-निर्वाह करते हैं । यहाँ के मनुष्यतिर्यंच अपने-अपने पुण्य-पापों के अनुसार नरक, तिर्यंचादि चारो गतियों में उत्पन्न होते हैं तथा यहाँ के ही मनुष्य अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों के द्वारा कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करते हैं । उक्त कर्मभूमि के सिवाय शेष को अकर्मभूमि या भोगभूमि कहा जाता है, क्योंकि यहाँ असि-मषि आदि कर्मों के द्वारा जीविकोपार्जन नहीं करना पडता, किन्तु, प्रकृतिदत्त कल्पवृक्षों के द्वारा ही जीवननिर्वाह होता है । किन्तु वे सदा स्वस्थ रहते हुए पूर्ण आयु-पर्यन्त दिव्य भोगो को भोगते रहते है ।१६
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