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और (४) नारक (नारकीय जीवन ) ३० । प्राणी अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार इन गतियों में जन्म लेता है । यदि वह शुभ कर्म करता है तो देव और मनुष्य के रूप में जन्म लेता है और अशुभ कर्म करता है तो तिर्यंच (पशु) गति या नरक गति प्राप्त करता है । मनुष्य मरकर पशु भी हो सकता है और देव भी । प्राणी भावी जीवन में क्या होगा ? यह उसके वर्तमान जीवन के आचरण पर निर्भर करता है ।
कौनसे कर्म से कौनसी गति प्राप्त होती है ? अब हम उसका विवेचन करेंगे ।
गति
गति का सामान्य अर्थ होता है - गमन । एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर पहुँचने को 'गति' कहते है । ३१ सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदि ग्रन्थों में गति का सामान्य लक्षण इसी प्रकार दिया है- 'देशाद् देशान्तर प्राप्ति हेतुर्गति': । अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान को प्राप्त करने का जो हेतु या साधन है उसे गति कहते हैं ।
जैन कर्म - सिद्धान्त की दृष्टि से अथवा संसारी जीवों की गतियों की दृष्टि से चार गतियाँ प्रसिद्ध है :
१) नरक गति, २) तिर्यञ्च गति, ३) मनुष्य गति, ४) और देव गति । नरक गति :- जहाँ दुःख ही दुःख होता है, वह है नरक गति ।
जो जीव जिस प्रकार के कर्म करता है, उसको उनके अनुरूप फल भोगना होता है । यदि जीव ने एकान्त दुःख रूप नरक भव के योग्य कर्मों का बंध किया है तो उसे नरक का दुःख भोगना होता है । नैरयिक जीव सदैव भयग्रस्त, त्रसित, भूखे, उद्विग्न, उपद्रवग्रस्त एवं क्रूर परिणाम वाले होते हैं । वे सदैव परम अशुभ नरक भव का अनुभव करते रहते हैं ।
अधोलोक में नरक के कुल सात भेद है :
१. रत्नप्रभा; २. शर्कराप्रभा; ३. वालुकाप्रभा; ४. पंकप्रभा; ५. धूमप्रभा; ६. तम: प्रभा; और ७ तमः तमाः प्रभा । ये सात पर्याप्त एवं सात अपर्याप्त ऐसे कुल चौदह भेद नरकगति के जीवों के है ।
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