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________________ ३) पुण्य : शुभ कर्म, जिनके उदय से मनचाही वस्तु प्राप्त होती है, जैसे शातावेदनीय, यशनामकर्म, आदि । जिन के उदय से शरीर को शाता एवं यश आदि मिलते हैं । इसे पुण्य कहते हैं । ४) पाप : अशुभ कर्म, जिनके उदय से अनिष्ठ पदार्थ का संयोग होता है जैसे अशाता, अपयश आदि उस को पाप कहते है । ५) आस्त्रव : __जिस से आत्मा में कर्म का आस्रवण-प्रवाह बहना आरंभ होता है, जो कर्मबंध के कारण हैं । मिथ्यात्व, इन्द्रियां, अविरति, कषाय, योग, प्रमाद आदि आस्रव हैं । ६) संवर : अर्थात् आते हुए कर्म को रोकना । जैसे कि सम्यक्त्व, क्षमादि परिषह, शुभ भावना, व्रत-नियम, सामायिक चारित्रादि को संवर कहते हैं । ७) बंध : आत्मा के साथ कर्म का दूध और पानीवत् एकमेक (एकीभूत) होना बंध है। कर्म की निश्चित होती हुई प्रकृति(स्वभाव), स्थिति(काल), उग्र मंद रस, और प्रदेश (दल-प्रमाण)-ये भी बंध है-प्रकृति बंध, स्थितिबंध आदि । ८) निर्जरा : अर्थात् कर्मों का नाश होना । कर्म का हास करनेवाला बाह्य-आभ्यतंर तप । जैसे कि-उपवास, रसत्याग, कायाक्लेश आदि बाह्य तप है । और प्रायश्चित, विनय वेयावच्च (सेवा), स्वाध्याय, ध्यान आदि आभ्यतंर तप है । इसे कर्म निर्जरा कहते हैं । ९) मोक्ष :- . . जीव की कर्मसम्बन्ध से सर्वथा मुक्ति और जीव का प्रगट अनंत ज्ञान अनंत सुखादि स्वरूप जो है उसे मोक्ष कहते हैं । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002570
Book TitleJain Agamo me Swarg Narak ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemrekhashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year2005
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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