________________
२७६
सुद्धावास के ये पाँच भेद हैं- १२. अविहा, १३. अतप्पा, १४. सुदस्सा,
१५. सुदस्सी, १६. अकनिट्ठा ।
अरूपावचर भूमि में उत्तरोत्तर अधिक सुख वाली चार भूमि है
१. आकासानयायतन भूमि
२. वित्राणञ्चायतन भूमि
३. अकिंचञ्जायतन भूमि
४. नेवसञ्जानासञ्जायतन भूमि
अभिधम्मत्थ-संग्रह में नरको की संख्या नहीं बताई गई है, किन्तु मज्झिमनिकाय में उन विविध कष्टों का वर्णन है जो नारकों को भोगने पड़ते हैं । (बालपण्डित - सुत्तन्त - १२९ देखें)
जातक (५३०)में ये आठ नरक बताए गए हैं- संजीव, कालसुत, संघात, जालरोव, धूमरोरूव, तपन, प्रतापन, अवीचि । महावस्तु ( १, ४ ) में उक्त प्रत्येक नरक के १६ उत्सद ( उपनरक) स्वीकार किए गए हैं । इस तरह सब मिलकर १२८ नरक हो जाते हैं । किन्तु पंचगति - दीपनी नामक ग्रन्थ में प्रत्येक नरक के चार उस्सद बताए हैं- माल्हकूप, फुक्कुल, असिपत्तवन, नदी (वेतरणी) ६३ । बौद्धों ने देवलोक के अतिरिक्त प्रेतयोनि भी स्वीकार की है । इन प्रेतों की रोचक कथाएँ पेतवत्थु नाम के ग्रन्थ में दी गई हैं ।
सामान्यतः प्रेत विशेष प्रकार के दुष्कर्मों को भोगने के लिए उस योनि में उत्पन्न होते हैं । इन दोषों में इस प्रकार के दोष है— दान देने में ढील करना, योग्य रीति से श्रद्धा-पूर्वक न देना । दीघनिकाय के आटानाटिय सुत्त में निम्नलिखित विशेषणों द्वारा प्रेतों का वर्णन किया गया है— चुगलखोर, खूनी, लुब्ध, चोर, दगाबाज आदिः अर्थात् ऐसे लोग प्रेतयोनि में जन्म ग्रहण करते हैं । पेतवत्थु ग्रंथ से भी इस बात का समर्थन होता है ।
पेतवत्थु के आरंभ में ही यह बात कही गई है कि, दान करने से दाता अपने इस लोक का सुधार करने के साथ-साथ प्रेतयोनि को प्राप्त अपने संबंधियों के भव का उद्धार करता है ।
प्रेत पूर्वजन्म के घर की दीवार के पीछे आकर खडे रहते हैं। चौक में अथवा मार्ग के किनारे आकर भी खड़े हो जाते हैं । जहाँ महान् भोज की
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org