________________
२७२ है, किन्तु पापी को दण्ड देते हैं । देव जिस व्यक्ति के मित्र बन जाएँ, उसे कोई भी हानि नहीं पहुंचा सकता । देवता अपने भक्तों के शत्रुओं का नाश कर उनकी सम्पत्ति अपने भक्तों को सौंप देते हैं। सभी देवों में सौंदर्य, तेज और शक्ति है । सामान्यतः देव स्वयं ही अपने अधिपति हैं, अर्थात् वे अहमिन्द्र हैं । ऋषियों ने जिस देव की स्तुति की है, फलतः वह उसे प्रसन्न करने के लिए है, अतः स्वाभाविक है कि उसके अधिक से अधिक गुणों का वर्णन किया जाय । अतः प्रत्येक देव में सर्वसामर्थ्य स्वीकार किया गया । इसका परिणाम यह हुआ कि, बाद में यज्ञ के लिए सब देवों की महत्ता समान रूप से स्वाकार की गई । 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति'-५२ विद्वान् एक ही तत्त्व का नाना प्रकार से कथन करते हैं-यह मान्यता दृढ़ हो गई। फिर भी यज्ञ-प्रसंग में व्यक्तिगत देवों के प्रति निष्ठा कभी भी कम नहीं हुई । भिन्न-भिन्न अवसरों पर भिन्नभिन्न देवों के नाम से यज्ञ होते रहे । इसलिए हमें यह बात माननी पड़ती है कि, ऋग्वेद-काल में किसी एक ही देव का अन्य देवों की अपेक्षा अधिकि महत्व नहीं था। ऋग्वेद काल में एक देव के स्थान पर दूसरे देव को अधिष्ठित कर देने की कल्पना करना असंगत है ।५३
सभी देव धुलोक-निवासी नहीं हैं । वैदिकों ने लोक के जो तीन विभाग किए है, उनमें उनका निवास है । धुलोकवासी देवों में द्यो, वरूण, सूर्य, मित्र, विष्णु, दक्ष, आश्विनों आदि का समावेश है । अन्तरिक्ष में निवास करने वाले देव ये हैं-इन्द्र, मरूत, रूद्र, पर्जन्य, आपः आदि । पृथ्वी पर अग्नि, सोम, बृहस्पति आदि देवों का निवास है । उपनिषदों में स्वर्ग :
बृहदारण्यक में आनंद की तरतमता का वर्णन है । उसके आधार पर मनुष्यलोक से ऊपर के लोक के विषय में विचार किया जा सकता है। उसमें कहा गया है कि स्वस्थ होना, धनवान होना, दूसरों की अपेक्षा उच्च पद प्राप्त करना, अधिक से अधिक सांसारिक वैभव होना, ये ऐसे आनन्द हैं जो इस संसार में मनुष्य के लिए महान् से महान् हैं । पितृलोक में जाने वाले पितरों को इस संसार के आनंद की अपेक्षा सौ गुना अधिक आनन्द मिलता है । गन्धर्वलोक में उससे भी सौगुना अधिक आनंद है । पुण्य-कर्म द्वारा देवता बने हुए लोगों का आनंद गन्धर्वलोक से सौ-गुना ज्यादा है । सृष्टि की आदि में जन्म लेने वाले देवों का आनन्द इन देवों की अपेक्षा सौ-गुना अधिक है । प्रजापति-लोक में
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org