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छठी और सातवीं पृथ्वी के नैरयिक बहुत और बड़े (गोबर के कीट के समान) लाल कुन्थुओं की रचना करते हैं, ये वज्रमय मुखवाले लाल और गोबर के कीड़े के समान, बड़े कुन्थुओं का रूप बनाकर एक दूसरे के शरीर पर चढते हैं । उनके शरीर को बार बार काटकर दूसरे नारक के शरीर में अन्दर तक प्रवेश करके इक्षु का कीड़ा जैसे इक्षु को खा खा कर छलनी कर देता है, वैसे ही वे नारक के शरीर को छलनी जैसा करके वंदना पहुँचाते है, वैसे ही वे नारक के शरीर को छलनी जैसा करके वेदना पहुंचाते हैं और सौ पर्व वाले इक्षु के कीड़ो की तरह भीतर ही भीतर सनसनाहट करते हुए घुस जाते हैं और उनको असह्य वेदना उत्पन्न करते हैं ।१६
नरक में जितने भी साधन हैं वे उनके दुःख को बढाने वाले होते हैं । नारकों को वैक्रिय लब्धि होती है देवों को भी होती है । परन्तु नारकों को वह उनके लिए अभिशाप के रूप में ही होती हैं । क्यों कि वे उसके प्रभाव से शस्त्रादि बनाकर परस्पर लड़ते हैं और दुःख पाते हैं ।
यह विक्रिया दो प्रकार की होती है-१) पृथक् विक्रिया और २) अपृथक् विक्रिया। पृथक् विक्रिया देवों को प्राप्त होती है, जिसके प्रभाव से देव एक साथ अनेक शरीर बना सकते हैं । नारकों को अपृथक् विक्रिया प्राप्त होती है, जिसके प्रभाव से वे अपने शरीर से एक समय में एक ही विक्रिया कर सकते हैं और वह भी अशुभरूप विक्रिया ही । विक्रियारूप शरीर मूल शरीर से दुगुनी अवगाहना वाला बना सकते हैं। नारकी के जीव शुभ विक्रिया करना चाहते हैं, लेकिन होती है-अशुभ विक्रिया ही । यह उस नरकभूमि का प्रभाव है ।९७
११. नैरयिक के नरक भव का अनुभव रत्नप्रभा आदि नरक भूमियों के नारक जीव क्षेत्रस्वभाव से ही अत्यन्त गाढ अन्धकार से व्याप्त भूमि को देखकर नित्य डरे हुए और शंकित रहते हैं, नित्य भूखे रहते हैं । परमाधामिक देव तथा परस्परोदीरित दुःखसंघात से नित्य त्रस्त रहते हैं । वे नित्य दुःखानुभव के कारण उद्विग्न रहते है, वे नित्य उपद्रवग्रस्त होने से तनिक भी साता नहीं पाते हैं । नित्य वधिक के समान क्रूर परिणाम वाले, नित्य परम अशुचि, अनन्य सदृश अशुभ और निरन्तर अशुभ रूप से उपचित नरकभव का अनुभव करते हैं । इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक हैं।
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