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________________ २४२ (१९) लाठी आदि से मार-मार कर उनकी पीठ तोड़ देते हैं, लोहे के भारी घन से सिर फोड़ देते हैं, उनके शरीर को चूर-चूर कर देते हैं फिर लकडी के तख्ते को चीरने की तरह गर्म आरों से चीर देते हैं, पश्चात् खौलता हुआ सीसा आदि पीने को उनको बाध्य करते हैं । (२०) नारक में पूर्वकृत रौद्र पापकर्मों का स्मरण करा कर, उससे हाथी की तरह भारवहन कराया जाता है, एक दो या तीन नारकों को उसकी पीठ पर चढ़ाकर चलाया जाता है, न चलने पर उसके मर्मस्थान में तिखा नोकदार आरा आदि शस्त्र चुभोया जाता है । (२१) परवश नारकों को कीचड़ से भरी एवं कंटीली विस्तीर्ण भूमि पर बलाच् चलाया जाता है। (२२) विविध बंधनो से बांधे हुए संज्ञा हीन नारकों के टुकडे करके उन्हें नगरबलि की तरह इधर-उधर फैंक देते हैं । (२३) वैतालिक नामक (वैक्रियक) एक-शिला निर्मित आकाशस्थ महाकाय पर्वत बड़ा गर्म रहता है, वहा नारकों को चिरकाल एक मारा-पीटा जाता हैं । (२४) उनके गले में फांसी का फंदा डालकर दम घोय जाता है । (२५) मुद्गरों और मूसलों से रोषपूर्वक पूर्वशत्रुवत् उन नारकों के अंग-भंग करते हैं, शरीर टूट जाने पर वे औंधे मुँह रक्तवमन करते हुए गिर जाते हैं । (२६) नरक में सदा खुंखार भूखे, छीठ तथा महाकाय गीदड़ रहते हैं, जो जंजीरो से बंधे हुए निकटस्थ नारकों को खाते रहते हैं ।। (२७) सदाजला नामक एक विषम या गहन दुर्गम नदी है, जिसका पानी रक्त, मवाद, एवं खार के कारण मैला व पंकिल है, उसके पिघले हुए तरल लोह के समान अत्यन्त उष्ण जल में नारक अकेले और अरक्षित होकर तैरते इन यातनाओं के अतिरिक्त अन्य सैंकडों प्रकार की यातनाएँ नरक के जीव भोगते हैं और उन्हें रो-रोकर सहन करते हैं, क्योंकि उन्हें सहे बिना और कोई चारा नहीं है । इन उपर्युक्त यातनाओं से यही निष्कर्ष निकलता है कि नारक के जीव को दिन-रात नाना दुःखो चिंताओ से संतप्त होकर, पापकर्मा नारको से पास उन दुःखो Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002570
Book TitleJain Agamo me Swarg Narak ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemrekhashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year2005
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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