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________________ प्रस्तर १ २ ३ २२० तमस्तमा: पृथ्वी के प्रस्तर की अवगाहना धनुष १२५ धनुष १८७॥ धनुष २५०॥ धनुष तमस्तमा:पृथ्वी में प्रस्तर नहीं है । उनकी भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष की है । उत्तरवैक्रिय एक हजार योजन है । ५९ ८. प्रस्तरों में नरकावास की रचना (१) प्रथम रत्नप्रभापृथ्वी से लगाकर छठी तमःप्रभापृथ्वी पर्यन्त पृथ्वियों में नरकावास दो प्रकार के हैं— आवलिकाप्रविष्ट और प्रकीर्णक रूप । जो नरकावास पंक्तिबद्ध हैं वे आवलिकाप्रविष्ट हैं और जो बिखरे-बिखरे हैं, वे प्रकीर्णक रूप हैं । रत्नप्रभापृथ्वी के तेरह प्रस्तर (पाथडे ) है । प्रस्तर गृहभूमि तुल्य होते हैं । पहले प्रस्तर में पूर्वादि चारों दिशाओं में ४९-४९ नरकावास हैं । चार विदिशाओं में ४८-४८ नरकावास हैं। मध्य में सीमन्तक नाम का नरकेन्द्रक है । ये सब मिलकर ३८९ नरकावास होते हैं । शेष बारह प्रस्तरों में प्रत्येक में चारो दिशाओं और चारों विदिशाओं में एक-एक नरकावास कम होने से आठ-आठ नरकावास कम-कम होते गये हैं । अर्थात् प्रथम प्रस्तर में ३८९, दूसरे में ३८१ — तीसरे में ३७३ – इस प्रकार आगे-आगे के प्रस्तर में आठ-आठ नरकावास कम हैं । इस प्रकार तेरह प्रस्तरों में कुल ४४३३ नरकावास आवलिकाप्रविष्ट हैं । और शेष २९९९५५६७ (उनतीस लाख पंचानवै हजार पाँच सौ सडसढ) नरकावास प्रकीर्णक रूप हैं। कुल मिलाकर प्रथम रत्नप्रभापृथ्वी में तीस लाख नरकावास हैं । ६० I Jain Education International 2010_03 (२) शर्कराप्रभा के ग्यारह प्रस्तर हैं । पहले प्रस्तर में चारों दिशाओं में ३६-३६ आवलिका प्रविष्ट नरकावास हैं। चारों विदिशाओं में ३५-३५ नरकावास और मध्य में एक नरकेन्द्रक है, सब मिलाकर २८५ नरकावास पहले प्रस्तर में आवलिकाप्रविष्ट हैं । शेष दस प्रस्तरों में प्रत्येक में आठ-आठ की हानि होने से सब प्रस्तरों के मिलाकर २६९५ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं । शेष २४९७३०५ (चौवीस लाख सित्तानवे हजार तीन सौ पाँच) पुष्पावकीर्णक नरकावास हैं । दोनों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002570
Book TitleJain Agamo me Swarg Narak ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemrekhashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year2005
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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