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________________ प्रकरण - ४ नरक विश्व की तरफ दृष्टि करते ही उसी क्षण आश्चर्य के साथ प्रश् उठता है कि-इस संसार में इतनी विटंबना क्यों ? सभी मानव समान होते हुए भी कोई दुःखी, कोई सुखी, कोई स्वरूपवान, कोई कुरूप, कोई निर्धन, कोई धनवान, कोई राजा है तो कोई रंक । अरे ! एक ही माता की कुक्षी से जन्मे हुए संतानों में भी कितना अन्तर ? इस सब विषमताओं का कारण एक ही है-जीवों के स्वयं के बांधे हुए कर्म, जिस के कारण विश्व में अनंतानंत जीव चार गति में भ्रमण करते हैं । इसमें जो भयंकर पाप करता है, वह नरक में जाता है, दुःखमय गति है नरक गति । जो "पापमय वृत्ति और पाप की प्रवृत्ति" से मिलती है । धर्मस्य फलमिच्छन्ति, धर्मम् नेच्छन्ति मानवाः । पापस्य फलं नेच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति सादरा ॥ "मानव पाप के फलरूप दुःख को चाहता नहीं हैं । पर पाप तो खुशी खुशी करता है" । आज चारों तरफ हिंसा, असत्य, चोरी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, संग्रहवृत्ति, अन्याय, अनीति, प्रपंच, छल-कपट आदि पापों की भरमार है । मत्स्य उद्योग, मुर्गी घर, कतलखाने आदि हिंसक व्यापार इधर, अणुबम्ब, अटमबम्ब आदि भयंकर अणुशस्त्र युक्त युद्ध, त्रासवाद और आतंकवाद, चलते-फिरते हत्या, खून आदि पाप की प्रवृत्तिया नरक गति में जाने के प्रवेश द्वार हैं । विपाक' सूत्र में ऐसे भयंकर पाप करनेवाले व्यक्तिओं को नरक में कैसे दुःखरूप फल भोगने पड़ते है, उन व्यक्तिओं का जीवन उदाहरण सहित वर्णन करने में आया हैं। पाप ही समस्त दुःखों की जनेता हैं । जहाँ पाप प्रवृत्तियाँ है, वहाँ विषयाशक्ति में से तीव्र कषायशीलता पैदा होती है । विषयों के आधीन जीव हिंसादिक पापों का तीव्र भाव से आचरण करता है और आनंद का अनुभव करता है, जिससे परिणामों में कलुषितता आये बिना नहीं रहती । इससे बांधे हुए कर्म जीव को नरकगति में खींचकर ले जाता है। वह नरक गति कैसी है ? चौदह राजलोक में कहां उसका स्थान है ? उसका Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002570
Book TitleJain Agamo me Swarg Narak ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemrekhashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year2005
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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