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हास होता है। सभी आरों का काल प्रमाण भी इसी प्रकार होता है ।
इस प्रकार अवसर्पिणी काल के १० क्रोडा कोडी सागरोपम वर्ष और उत्सर्पिणी काल के १० क्रोडा-कोडी सागरोपम वर्ष को मिलाकर कुल २० कोडा क्रोडी सागरोपम वर्ष का एक काल-चक्र होता है । ठीक उसी तरह अवसर्पिणी के ९ कोडा क्रोडी और उत्सर्पिणी के ९ क्रोडा क्रोडी कुल १८ कोडाकोडी सागरोपम काल तक ५ भरत ५ ऐरावत क्षेत्र धर्म से रहित हो जाते हैं । महाविदेह में सदा काल धर्म विद्यमान रहता है ।
वर्तमान तीर्थंकरोका में कौन से आरे में जन्म, उनकी व्यवस्था किस प्रकार होती है उसका उल्लेख अब किया जा रहा है ।
वर्तमान तीर्थंकर-चतुर्विशिका जैन धर्म अनुसार प्रत्येक काल में तीर्थंकर जन्म लेते हैं । अनंत काल तक होते रहेगें । वर्तमान काल-प्रवाह में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं । जैन मत में यह काल युगलियों का काल था । वर्तमान अवसपिणी के तीसरे 'सुषम-दुःषम' आरे के उपसंहार काल में कल्पवृक्षों की शक्ति क्षीण होने से जीवनोपयोगी सामग्री का धीरे-धीरे अभाव होने लगा, जिससे जन-जीवन अस्त-व्यस्त और संत्रस्त होने लगा । उसकी व्यवस्था के लिए कुलकर हुए । कुलकर अर्थात् कुलों की स्थापना और व्यवस्था करनेवाला । ये कुलकर ९ हुए ।
अन्तिम कुलकर 'नाभि' थे । और उन्हीं के सुपुत्र ऋषभदेव थे । जो प्रथम तीर्थंकर थे । जैन-परम्परा में तीर्थंकरो का स्थान सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि रहा हैं । युगलिकों की प्रार्थना पर प्रथम तीर्थंकर साधु होने से पूर्व राजा बन कर शिल्पादि कलाओं का प्रकटीकरण करते हैं । फलस्वरूप जनसमुदाय नीति नियमादि का पालन करते हुए सात्त्विक जीवन व्यतीत करता है । जनसमुदाय के
खाने के लिए धान्य की उत्पत्ति का साधन, बादर(स्थूल) अग्नि प्रकट करनी और जिवनोपयोगी साधनों के उत्पादन और संरक्षण का सब प्रकार से क्रियात्मक निर्देश तीर्थंकर करते हैं । तीर्थंकर स्वयं संबुद्ध होते हैं ।
अवसर्पिणी काल में धर्मतीर्थ के आद्य-प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव हुए । इन चौबीस तीर्थंकरो में से किसी भी तीर्थंकर ने पूर्ववर्ती तीर्थंकर से विरासत के रूप मे कुछ भी ज्ञान-निधि प्राप्त नहीं की। और न संघ-व्यवस्था के संबन्ध
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