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दो दिन के बाद आहार मात्र बेर जितनी । संतान पालन ६४ दिन । दूसरी बातें प्रथम आरे के समान ही होती है । इस आरे में लोग सुखी होते हैं । (३) सुषम दुःषम :
___कालमान २ कोडाकोडी सागरोपम । जिसमें सुख अधिक और दुःख कम होता है। देहमान १ कोस, आयु १ पल्योपम तथा ६४ पसलियाँ । आहारेच्छा एक दिन बाद । आहार आँवले जितना । पुत्र-पुत्री पालन ७९ दिन । दूसरी बातें प्रथम आरे के समान । विशेष में इस आरे के जब ८४ लाख पूर्व, ३ वर्ष ८॥ महिने शेष रहते है तब प्रथम तीर्थंकर देव का जन्म होता है । उत्तरोत्तर हानि वाले काल के प्रभाव से कल्पवृक्षों की महिमा धीरे-धीरे नष्ट होती जाती है । जनसमुदाय के खाने के लिए धान्य की उत्पत्ति होती हैं । बादर (स्थूल) अग्नि प्रकट होती है । युगलिकों की प्रार्थना पर प्रथम तीर्थंकर साधु होने से पूर्व राजा बन कर शिल्पादि कलाओं का प्रकटीकरण करते हैं । फलस्वरूप जनसमुदाय नीति नियमादि का पालन करते हुए सात्विक जीवन व्यतीत करते हैं । प्रथम तीर्थकर के निर्वाण के अनन्तर तीन वर्ष ८॥ महिने के बाद चौथे आरे का प्रारम्भ होता है। तीसरे आरे में ही युगलिकों की उत्पत्ति क्रमशः क्षीण हो जाती है । एक चक्रवर्ती भी इसी आरे में जन्म धारण करता है । तीर्थकर नाम कर्म के उदय से तीर्थ स्थापना होने के बाद मोक्षगमन का भी प्रारम्भ हो जाता है । (४) दुषम सुषम :
कालमान ४२ हजार वर्ष न्यून १ कोडाकोडी सागरोपम । मनुष्य की आयुपूर्व क्रोड वर्ष । शरीरमान ५०० धनुष्य । आहारादि अनियमित । युगलिकों की उत्त्पत्ति न होना । इसी आरे में शेष तेईस तीर्थकर, ग्यारह चक्रवर्ति, और नौ बलदेव, नौं बासुदेव तथा नौं प्रति वासुदेव होते हैं । इस आरे में जन्मे हुए आत्माओं का मोक्ष पांचवें आरे में हो सकता है । (५) दुःषम :
अंतिम तीर्थपति के मोक्ष-गमन के पश्चात इसका आरम्भ होता है । इसका कालमान २१ हजार वर्ष का है । प्रारंभ में देहमान ७ हाथ । आयु १२५ वर्ष । पसलिया १६ । आहारादि अनियमित । इस आरे के अन्त तक जिनशासन २१ हजार वर्ष तक चलेगा । उत्सूत्र प्ररूपणा अधिक होगी । परस्पर मैत्री भाव में कमी आएगी । उन्नति-अवनति का क्रम सतत चलता रहेगा । पाखंडियों की पूजा
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