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लेकर खड़ी हुई और बायें हाथ से अग्र शाखा को पकड़े हुए अर्ध निमीलित नेत्रों की ईषत् वक्र कटाक्ष-रूप चेष्टाओं द्वारा देवों के मनों को हरण करती हुईसी और एक दूसरे को देखकर परस्पर खेद-खिन्न होती हुई-सी, पार्थिवपरिणाम (मिट्टी से बनी) होने पर भी शाश्वत-नित्य विद्यमान, चंद्रार्धतुल्य ललाट वाली, चंद्र से भी अधिक सौम्य कांतिवाली, उल्का-खिरते तारे के प्रकाश पुंज की तरह उद्योत वाली-चमकीली विद्युत (मेघ की बिजली) की चमक एवं सूर्य के देदीप्यमान तेज से भी अधिक प्रकाश-प्रभावाली, अपनी सुंदर वेशभूषा से भंगार रस के गृह-जैसी और दर्शनीय मनोहर हैं ।१६२
____ इन द्वारों की उभय पार्श्ववर्ती दोनों निषीधिकाओं में सोलह-सोलह घंटाओ की पंक्तियाँ हैं । वे प्रत्येक घंटे जाम्बूनद स्वर्ण से बने हुए हैं, उनके लोलक वज्ररत्नमय हैं, भीतर और बाहर में विविध प्रकार के मणि जड़े हैं, लटकाने के लिये बंधी हुई साँकलें सोने की और रस्सियाँ (डोरियाँ) चाँदी की हैं ।।
उनके बाजूओं में वनमालाओं की परिपाटियाँ है । ये वनमालायें अनेक प्रकार की मणियों से निर्मित दुमों-वृक्षो, पौधो, लताओं, किसलयों (नवीन कोपलों) और पल्लवों-पत्तों से व्याप्त हैं । मधुपान के लिये बारंबार षटपदों-भ्रमरों के द्वारा स्पर्श किये जाने से सुशोभित ये वनलतायें हैं ।
द्वारों की उभय पार्श्ववर्ती दोनों निषीधिकाओं में प्रकंठक (वेदिका रूप पीठविशेष चबूतरा) हैं ।
ये प्रत्येक प्रकठंक अठाई सौ योजन लंबे अढाई सौ योजन चौड़े और सवा सौ योजन मोटे हैं तथा सर्वात्मना रत्नों से बने हुए है ।१६३
वाद्यों और वाद्यवादकों की रचना सूर्याभदेव ने एक सौ आठ देवकुमारों और देवकुमारियों की विकर्वणा करने के बाद उसने एक सौ आठ शंखों की और एक सौ आठ शंखवादकों की विकुर्वणा की । इसी प्रकार से एक सौ-आठ-एक सौ आठ गो-रणसिंगों और उनके वादकों-बजाने वाले की, शंखिकाओं (छोटे शंखों) और उनके वादकों की, खरमुखियों और उनके वादकों, पेयों और उनके वादकों की, परिपिरीकाओं और उनके वादकों की विकुर्वणा की । इस प्रकार कुल मिलाकर ४९ प्रकार के वाद्यों और उनके बजाने वालों की विकुर्वणा की । वह निम्न प्रकार से
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