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रक्तचंदन के हाथ लगे हुए थे और चंदनचर्चित कलश रखे थे । प्रत्येक द्वार तोरणो
और चन्दन-कलशों से शोभित था । दीवालों पर ऊपर से लेकर नीचे तक सुगंधित गोल मालायें लटक रही थी । सरस सुगधिन्त पंचरंगी पुष्पो के माडंने बने हुए थे । उत्तम कृष्ण अगर मंडप कुन्दरूष्क, तुरूष्क और धूप की मोहक सुंगध से महक रहा था और उस उत्तम सुरभि गंध से गंध की वर्तिका (अगरबत्ती, धूपबत्ती) प्रतीत होता था । अप्सराओं के समुदायों के गमनागमन से व्यापत था । दिव्य वाद्यों के निनाद से गूंज रहा था । वह स्वच्छ यावत् (सलौना, अभिरूप) था ।
उस प्रेक्षागृह मंडप के अंदर अतीव सम रमणीय भू-भाग की रचना की। उस भूमि-भाग में खचित मणियों के रूप-रंग, गंध आदि का समस्त वर्णन पूर्ववत् है ।
उस सम और रमणीय प्रेक्षागृह मंडप की छत में पद्मलता आदि के चित्रो से युक्त यावत् (स्वच्छ), सलौना, चिकना, घृष्ट, नीरज, निर्मल, निष्पंक, अप्रतिहतदीप्ति, प्रभा, किरणों वाला, उद्योत वाला, मन को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिनव, अतीव मनोहर चंद्रवा बांधा था । रंगमंच आदि की रचना
उस सम रमणीय भूमिभाग के भी मध्यभाग में वज्ररत्नों से निर्मित एक विशाल अक्षपाट (अखाड़े-क्रीडामंच) की रचना करके उस क्रीडामंच के ठीक बीचोंबीच आठ योजन लंबी-चौड़ी और चार योजन मोटी पूर्णतया वज्ररत्नों से बनी हुई निर्मल, चिकनी प्रतिरूप एक विशाल मणिपीठिका की विकुर्वणा की । जिसका वर्णन प्रेक्षागृह के समान है । सिंहासन की रचना
मणिपीठिका के ऊपर एक महान सिंहासन बनाया । उस सिंहासन के चक्कला (पायों के नीचे के गोल भाग) सोने के, सिंहाकृति वाले हत्थे रत्नों के पाये सोने के, पादशीर्षक अनेक प्रकार को मणियों के और बीच के गीते जाम्बीनद (विशिष्ट स्वर्ण) के थे । उसकी संघियाँ (सांधे) वज्ररत्नों से भरी हुई थी और मध्यभाग की बुनाई का वेंत बाण (निवार) मणिमय था ।
उस सिंहासन पर ईहामृग, वृषभ, तुरग-अश्व, नर, मगर, विहग-पक्षी, सर्प, किन्नर, रूरू, सरभ (अष्टापद), चमर अथवा चमरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता
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