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अतः उनकी लेश्या और प्रकाश भी एक रूप में स्थिर हैं । वहाँ राहु आदि की छाया न पड़ने से ज्योतिष्कों का स्वाभाविक पीतवर्ण ज्यों का त्यों बना रहता है और उदय - अस्त न होने से उनका लक्ष योजन का प्रकाश भी एक-सा स्थिर रहता है । मनुष्य लोक से बाहर ही ये स्थिर ज्योतिष्क देव हैं ।
१५. चरज्योतिष्क ११४ :
मनुष्यलोक के ज्योतिष्क देव सदा मेरू के चारों ओर भ्रमण करते रहते हैं । मनुष्यलोक में एक सौ बत्तीस सूर्य और चंद्र है । जम्बूद्वीप में दो-दो, लवणसमुद्र में ४-४, धातकीखण्ड में १२ - १२, कालोदधि में ४२- ४२ और पुष्करार्ध में ७२-७२ हैं । एक चंद्र का परिवार २८ नक्षत्र, ८८ ग्रह और ६६९७५ कोटाकोटि तारों का है । यद्यपि लोकमर्यादा के स्वभावानुसार ज्योतिष्क विमान सदा अपने-आप घुमते रहते हैं तथापि समृद्धि - विशेष प्रकट करने के लिए और आभियोग्य (सेवक) नामकर्म के उदय से कुछ कीड़ाशील देव उन विमानों को उठाते हैं । सामने के भाग में सिंहाकृति, दाहिने गजाकृति, पिछे वृषभाकृति और बायें अश्वाकृतिवाले ये देव विमान को उठाकर चलते रहते हैं ।
इस प्रकार चर ज्योतिष्क देवों की संचार विधि, गति के अनुसार ही समय अर्थात् काल का निर्धारण होता है । यहाँ अब इससे काल का निर्धारण किस प्रकार होता है उसका उल्लेख किया जा रहा है ।
१६. कालविभाग ११५ :
जैन परंपरा यह मान्य करती है कि इन ज्योतिष्क देवों के उदय, अस्त के परिणाम स्वरूप ही काल का विभाजन होता है। चूंकि चर ज्योतिष्क ही भ्रमण करते हैं, और यह भ्रमण मनुष्य लोक में ही होने से काल का विभाजन भी मनुष्यलोक तक ही सीमित है । इसका उल्लेख है कि मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास आदि, अतीत, वर्तमान आदि एवं संख्येय- असंख्येय आदि के रूप में अनेक प्रकार का कालव्यवहार मनुष्यलोक में ही होता है, उसके बाहर नहीं होता । मनुष्यलोक के बाहर भी यदि कोई कालव्यवहार करनेवाला हो और व्यवहार करे तो मनुष्यलोक प्रसिद्ध व्यवहार के अनुसार ही होगा, क्योंकि व्यावहारिक कालविभाग का मुख्य आधार नियत क्रिया मात्र है। ऐसी क्रिया सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्कों की गति ही है । यह गति भी ज्योतिष्कों की सर्वत्र नहीं, केवल
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