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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा ४।५।६
उवलक्खिय चित्तेणं चाणक्केणं गिहम्मि गन्तूण । जिणधम्मे संट्ठवियं सम्मं सयलं नियकुडम्बं ॥११॥ अत्थो वि कयत्थो च्चिय कुडम्बसयणेसु धम्मकज्जेसु । विणिओयऊण विहिओ समयं नाऊण बुद्धिमया ॥१२॥ चिन्तियमणेणं निउणं इच्छाए महपयस्स एस निवो । पिसुणेण छिद्दकहणा ममोवरिं कोविओ जेण ॥१३॥ सो कायव्वो ऽवस्सं मए तहा जीवियं जहा दुक्खं । अणुहवमाणो धारइ रहिओ भोगोवभोगेहिं ॥१४॥ तो तेण निउणमइणा सुरहिदव्वेहिं गन्धजुत्तीए । पुडपागपओगेणं निम्मविया सुरहिणो वासा ॥१५॥ पुडब्धा संट्ठविया मंजूसाए सुलट्ठकट्ठाए । मज्झम्मि भुज्जपत्तं निहियं लिहियक्खरं एवं ॥१६॥ जो जिग्घिऊण वासे से होही भोगोवभोगलम्पडओ । सो मरणं चिय लहिही सन्देहो नेह कायव्वो ॥१७|| मंजूसा ओयरए पिहियदुवारम्मि जत्तओ ट्ठविया । संविग्गो चाणक्को मन्तियसयणाइयं लोयं ॥१८॥ खामइ सम्मं जिणहरमहिमं काराविऊण सविसेसं । समसत्तुमित्तचित्तो आपुच्छिय जाइ रन्नम्मि ॥१९॥ तसपाणबीयरहिए गोकुलगणे करीसकलुसम्मि । इंगियदेसम्मि ट्ठिओ, पडिवज्जइ अणसणं विहिणा ॥२०॥ विन्नाए वुत्तन्ते भणइ निवं बिंदुसारमह धाई । कीस तए मन्तिवरो परिभविओ एस चाणक्को ? ॥२१।। एसो हु मूलबन्धो मोरियवंसस्स वित्थरन्तस्स । तुह पिउणो वि य जणओ जं जणओ सव्वलच्छीणं ॥२२॥ नन्दस्स कन्दकसणो वसणन्नवमहणमन्दरगिरिन्दो । पुरिसोत्तमपरिगहिओ सिरीसमुल्लासहेउ त्ति ॥२३॥
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