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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा ४/५/६
भरहखित्तम्मि इमा खमा मए साहिया सुहेणेव । कोहाइरिउजएणं दुसाहणा सा निययखित्ते || १५९॥ ती असाहिया संजमरज्जम्मि च ट्ठविज्जन्ते । कोहाईहिं रिऊहिं बन्धव का सुखसम्पत्ती ? ॥१६०॥
चउसट्ठिसहसरमणीभोगसुहं नवनिहाणसंजोए । अब्भग्गमाणपसरं चएमि कह ? बन्धव इयाणि ? || १६१ ॥ एवं च चक्किवयणं सुच्चा मुणिपुंगवो वि चिन्तेइ | एयस्स भोगगिद्धी सपक्खवाया भवमसाणे ॥ १६२॥ कह सो सिवपुरमग्गे द्वाविज्जइ ? पुव्वजम्मसन्नासे । इत्थीरयणनियाणा जो हारइ अप्पणो चरणं ॥ १६३॥ जिणवयणसिद्धमन्तप्पओगसज्झो न एस अम्हाणं । भोगरइसप्पिणीए जं नज्जइ कालदट्ठो व्व ॥ १६४॥ इच्चाई चिन्तिऊणं भणियं मुणिणा नरिन्द पुव्वभवे । तुम कयं नियाणं न बुज्झसे तप्पभावेण ॥ १६५ ॥ तो अम्हाण पयासो पडिमन्थो तुम्ह बोहणे एसो । आपुच्छिओऽसि सम्पइ विहरामो संजमोज्जुत्ता ॥ १६६ ॥ भणिऊणेवं विहरइ मुणिसीहो अन्नअन्नदेसेसु । पत्ता कमेण केवललच्छि सिद्धो सुहसमिद्धो ॥१६७॥ चक्की वि बम्भदत्तो रज्जे रटुम्मि भोगरइरसिओ । गिद्धो दिद्धो चिक्कणअइघिणगुरुपावपंकेण ॥ १६८॥ कामन्धो वि य एसो कहापओगेण होइ अन्धो वि । आउक्खएण गच्छइ तो क्कमसो सत्तमनरए ॥१६९॥ भोगे रई एवं पावट्ठाणं ति वन्निया समए । सव्वेहि पयत्तेणं चइयव्वा लहुयकम्मेहिं ॥ १७०।।
ब्रह्मदत्तख्यानकं समाप्तम् ॥
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