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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा ४।५।६ जसभद्दा वि य चिन्तइ दिणमणिबिम्ब पि फुरिकिरणोहं । उग्गिरइ अंधयारं दुरुज्झियगुरुलहुवियारं ॥८॥ भणइ य दूइहुत्तं राया परिचत्तसकुलमज्जाओ । जं एवं अणुरज्जइ लज्जइ नियभाउणो न कहं ? ॥९॥ एवं तीए वयणं दूई गन्तूण साहइ निवस्स । सो वि य गिद्धो लुद्धो मारावइ बंधवं लहुयं ॥१०॥ जसभद्दा वि य रन्नो निग्घिणचरियं निरिक्खिउं सिग्धं । गहिऊणाऽऽभरणाइं नासइ नियसीलरक्खट्ठा ॥११॥ सावत्थि पुरि पत्ता चिट्ठइ पडिवन्नजणयभावस्स । थेरवणियस्स गेहे दुहिया वि य दुहियवित्तीए ॥१२॥ जयसेणसूरिगुरुणो कित्तिमइमहयरीसमीवम्मि । पयपउमवन्दणत्थं पत्ता साहइ नियं चरियं ॥१३॥ पच्चागयसंवेगा धम्मं सोऊण सुद्धसद्धाए । पव्वजं पडिवज्जइ अकहियपच्चन्नगब्भा सा ॥१४॥ परिवड्डन्ते गब्भे पुच्छइ महयरी किमेयंति ? । भणइ य भया न गब्भो पुचि कहिओ अदिक्खाए ॥१५॥ कालक्कमेण जाओ पुत्तो सावयघरम्मि वड्डन्तो। समए पडिवन्नवओ जाओ खुड्डगकुमारो त्ति ॥१६॥ उव्वोढुं सीलभरं अचयंतो तयणु मेरुगिरिगरुयं । ओहावणाणुपेही सो जाओ जोव्वणारंभे ॥१७॥ उन्निक्खमिउं पुच्छइ जणणि सा भणइ वच्छ ! तावऽच्छ । मज्झवयणेण बारसवरिसाई जाव पुज्जन्ति ॥१८॥ पुन्नेसु तेसुं अरई पत्तो पुच्छइ पुणो वि सूरीणं । वयणेणं वरिसाइं तत्तियमित्ताई चिट्ठेइ ॥१९॥ तेसु वि पज्जत्तेसुं अरओ चारित्तमोहदोसेण । उज्झायवयणओ वि य अच्छइ पुण तित्तियं कालं ॥२०॥
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