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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा ४।५।६ महुरस्सरेणं तत्तो धम्मं सव्वंगसुन्दरी वइणी । भवजलहिजाणवत्तं कहइ जिणिन्देहिं जं वुत्तं ॥२०३।। देवागमेण विम्हयरसेण अन्तेउरेण सह राया । अइ एइ पउरलोओ परियणरिद्धीए परियरिओ ॥२०४।। सागरसमुद्ददत्तो एयं अच्छेरयं च मन्नन्ता । महिलाहिं संजुत्ता परमान्देण तह पत्ता ॥२०५।। "तह भगवईए भणियं भो भव्वा इत्थ भवसमुद्दम्मि ।
दसदिठ्ठन्तदुल्लम्भा माणुसजम्माइसामग्गी ॥२०६।। जओ भणियं
"माणुस्सखित्तजाइकुलरूवारोग्गआउयं बुद्धी । सव्वन्नुगहसद्धासंजमो य लोगम्मि दुलहाइ" ॥२०७॥ [ ] तम्हा भव्वा रक्खाट्ठाणे बहुसत्तजीवणिकायस्स । जिणधम्मे रयणायरसरिसे सेवामइं कुणह ॥२०८।। जेणेह नाणदंसणचरित्तरयणाण तुम्ह उवलम्भे । सिद्धिपुरीए रज्जं असंसयं सासयं होइ ॥२०९।। संसारे पुण जीवा चउरासीजीवजोणिलक्खेसु । अट्ठविहकम्मबन्धणबद्धा न लहन्ति सुहमणहं ।।२१०|| जम्हा देवगईए इसानलकोहमाणलोहेहिं । देवा किल चवणत्ता सया वि सुहिया न हु हवन्ति ॥२११॥ मणुयगईए जायइ गब्भे जम्मे य जमिह जीवाणं । तं दुक्खं जेणाऽऽउं खिज्जइ सोवक्कम सहसा ॥२१२।। निरुवक्कमे वि तम्मि य बालत्ते जणणिथन्नच्छेएण । अचिकिच्छणिज्जरोगाइएहि पीडिज्जए जीवो ॥२१३॥ तरुणत्तणम्मि मणुया दुरन्तदारिद्ददुक्खिया हुन्ति । इट्ठविओगाणिट्ठप्पओगदावानलुत्तत्ता ॥२१४॥ अन्ने वा वसणासत्ता विसयग्गामेसु हुंति खलसंगे। पसुपायघायदलिया कलिया धन्नं व दुक्खेणं ॥२१५।।
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