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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा ४।५।६
नाणाइगुणमणीणं रोहणगिरिमेहलाए निद्धसही । टंकाभिघायसहणी गुरुपायपसंगसोहिल्ला ॥४॥ अह तिव्वगिम्हकाले पराजिया मलपरीसहेणेसा । पक्खालियतणुवसणा चिट्ठइ वइणीण मज्झ गया ॥५।। अन्नाण वि समणीणं नृणं एसा हविस्सइ पवित्ती । सुहसीला जं जीवा अबंभगुत्ती तओ होइ ॥६॥ "एक्केण कयमकज्जं करेइ तप्पच्चया पुणो अन्नो । सायाबहलपरम्परवुच्छेओ संजमतवाणं ॥७॥[ ] एवं विभाविऊण वियरइ तीए पवित्तिणी सिक्खं । वच्छे जुत्तं न हवइ सरीरचीराण चुक्खत्तं ॥८॥ कायव्वं वइणीणं चारित्तं चेव चुक्खयं भद्दे ! । जं जच्छइ सिवसंगमसासयसुहसम्पयमणन्तं ॥९॥ सूणारंभपवित्तं सरीरचीराण होइ चुक्खत्तं । अज्जे अणज्जचरिए बाओसियत्तं तओ होइ ॥१०॥ दुसहो वि य समणीहिं सहियव्वो मलपरीसहो भद्दे ! । भवसिन्धुजाणवत्तं जेण चरित्तं हवइ विमलं ॥११॥ विमलेण चरित्तेणं चंदणरससुरहिअंगरागेण । भमरि व्व झत्ति केवलनाणसिरी संगममुवेइ ॥१२॥ असुइरसकरणमेहे पुरिसगेहे कहं ? मणुयदेहे । धोविज्जन्ते वि धुवं, हवइ न हु अज्जे पवित्तत्तं ॥१३॥ पावमलाणं संचयरित्तीकरणं तु होइ चारित्तं । धोविज्जंते देहे तं पुण मलिणं हवइ वच्छे ! ॥१४॥ एवं पन्नविया पि हु तणुवसणखालणम्मि आसत्ता । पिहु वसहिट्ठिया चिट्ठइ पंडुरअज्ज त्ति विक्खाया ॥१५॥ निच्चं तवचरणरया सज्झाणज्झाणकाउस्सग्गगया । बाउसिया संवसिया सुइरं एगागिणी चेव ॥१६॥
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