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________________ ३०० ध्यानशतकम मुखमिति ह्युच्यमानेऽनेकमुखत्वं निवर्तितं एकमुखे जैसे शीघ्रतासे संक्रमण करता है, वह ध्यानी तु संक्रमोऽभ्युपगत एवेति नानिष्टप्राप्तिः ।१९। अपनेआप उसी प्रकार लौट आता है। अथवा अङ्गतीत्यग्रमात्मेत्यर्थः। द्रव्यार्थतयैक प्र.सा./ता. वृ./१०४/२६२/१२ अल्पकालत्वास्मिन्नतात्मन्यग्रे चिन्तानिरोधो ध्यानम् । ततः त्परावर्तनरूपध्यानसन्तानो न घटते । अल्प स्ववृत्तित्वात् बाह्यध्येय-प्राधान्यापेक्षा निवर्त्तिता । काल होनेसे ध्यान सन्तति की प्रतीति नहीं होती। भवति ।२१। प्रश्न- यदि ध्यानमें अर्थ व्यंजन योगकी संक्रान्ति होती है तो 'एकाग्र' वचन कहने में भा. पा./टी./७८/२२७/२१ यद्यप्यर्थव्यञ्जनादिभी अनिष्टका प्रसंग समान ही है? उत्तर- ऐसा संक्रान्ति-रूपतया चलनं वर्तते तथापि इदं नहीं क्योंकि अपने विषयके अभिमुख होकर पुनः ध्यानम् । कस्मात् । एवंविधस्यैवास्य पुनः उसीमें प्रवृत्ति रहती है। अग्रका अर्थ मुख्य विवक्षितत्वात्। विजातीयानेकविकल्परहितस्य अर्थादिसंक्रमेण चिन्ताप्रबन्धस्यैव एतद्भयाहोता है, अत: ध्यान अनेकमुखी न होकर एकमुखी नत्वेनेष्टत्वात्। अथवा द्रव्यपर्यायात्मनो वस्तुन रहता है और उस मुखमें ही संक्रम होता रहता है। अथवा ‘अङ्गतीति अग्रम् आत्मा' इसी व्युत्पत्तिमें एकत्वात् सामान्यरूपतया व्यञ्जनस्य योगानां द्रव्यरूपसे एक आत्माको लक्ष्य बनाना स्वीकृत चैकीकरणादेकार्थचिन्तानिरोधोऽपि घटते । ही है । ध्यान स्ववृत्ति होता है, इसमें बाह्य द्रव्यात्पर्यायं व्यञ्जनाद्वयञ्जनान्तरं योगाद्योगान्तरं चिन्ताओंसे निवृत्ति होती है। विहाय अन्यत्र चिन्तावृत्तौ अनेकार्थता न द्रव्यादेः पर्यायादौ प्रवृत्तौ। यद्यपि पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानमें ध. १३/५,४,२६/गा. ५२/७६ अंतोमुहुत्तपरदो योगकी संक्रान्ति रूपसे चंचलता वर्तती है फिर चिंता-ज्झाणंतरं व होजाद्धि । सुचिरं पि होज भी यह ध्यान ही है क्योंकि इस ध्यानमें इसी बहुवत्थुसंकमे ज्झाणसंताणो ।५२। प्रकारकी विवक्षा है और विजातीय अनेक विकल्पों ध. १३/५, ४,२६/७५/५ अत्थंतरसंचाले से रहित तथा अर्थादिके संक्रमण द्वारा चिन्ता संजादे वि चित्तं तर गमणाभावेण प्रबन्धक इस ध्यानके ध्यानपना इष्ट है। अथवा ज्झाणविणासाभावादो। १. अन्त-र्मुहूर्तके बाद क्योंकि द्रव्य पर्यायात्मक वस्तुमें एकपना पाया जाता चिन्तान्तर या ध्यानान्तर होता है, या चिरकाल है इसलिए व्यंजन व एकीकरण हो जानेसे एकार्थ तक बहुत पदार्थोंका संक्रम होनेपर भी एक ही चिन्तानिरोध भी घटित हो जाता है । द्रव्यसे पर्याय, ध्यान सन्तान होती है ।५२। २. अर्थान्तरमें गमन व्यंजनसे व्यंजनान्तर और योगसे योगान्तर इन होनेपर भी एक विचारसे दूसरे विचारमें गमन ही प्रकारोंको छोडकर अन्यत्र चिन्तावृत्तिमें अनेकार्थता होने से ध्यानका विनाश नहीं होता । या द्रव्य व पर्याय आदिमें प्रवृत्ति नहीं है। ज्ञा./४२/१८ अर्थादिषु यथा ध्यानी संक्राम- पं. ध./उ./८४९-८५१ ननु चेति प्रतिज्ञा त्यविलम्बितम्। पुनर्व्यावर्त्तते तेन प्रकारेण स हि स्यादर्थादर्थान्तरे गतिः। आत्मनोऽन्यत्र तत्रास्ति स्वयम् ।१८। जो ध्यानी अर्थ व्यंजन आदि योगोंमे ज्ञानसञ्चेतनान्तरम् ।८४९। सत्यं हेतोर्विपक्षत्वे Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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