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________________ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् २९१ स. सि./९/४४/४५६/१ तत्र द्रव्यपरमाणुं सवीचारं ।६०।. भावपरमाणुं वा ध्यायत्राहितवितर्कसामर्थ्यः ध. १३/५,४,२६/७८/८ एकदव्वं गुणपजायं अर्थव्यञ्जने कायवचसी च पृथक्त्वेन संक्रामता वा पढमसमए बहुणयगहणणिलीणं सुदरमनसापर्याप्तबालोत्साहवदव्यवस्थितेना-निशितेनापि विकिरणु-जोयवलेण ज्झाएदि। एवं तं चेव शस्त्रेण चिरात्तरं छिन्दनिव मोहप्रकृतीरुपशम- अंतोमुहुत्त-मेत्तकालं ज्झाएदि । तदो परदो यन्क्षपयंश्च पृथक्त्ववितर्क-वीचारध्यानभाग्भवति। अत्यंतरस्स णियमा संकमदि । अधवा तम्हि (पुनवीर्यविशेषहा-नेर्योगाद्योगान्तरं व्यञ्जनाढ्यञ्ज- चेव अत्थे गुणस्स पजयस्स वा संकमदि । नान्तरमा-दर्थान्तरमाश्रयन् ध्यानविधूततमोरजाः । पुबिल्लजोगो जोगोगंतरं पि सिया संकमदि। ध्यान-योगानिवर्तते इति । पृथक्त्ववितर्कवीचारम् एगमत्थमत्थंतरं गुणगुणतरं पजाय-पज्जायंतरं च (रा.वा.)। जिस प्रकार अपर्याप्त उत्साहसे बालक । हेट्ठोवरि ठुविय पुणो तिण्णि जोगे एगपंतीए अव्यवस्थित और मौथरे शस्त्रके द्वारा भी चिरकालमें ठविय दुसं-जोग-तिसजोगेहि एत्थ पुधत्तविवृक्षको छेदता है उसी प्रकार चित्तको सामर्थ्य को दक्कवीचार-ज्झाणभंगा बादालीस ।४२। प्राप्त कर जो द्रव्यपरमाणु और भावपरमाणुका ध्यान उप्पाएदव्वा । एवमंतोमुहुत्त-कालमुवसंतकसाओ। कर रहा है वह अर्थ और व्यंजन तथा काय सुक्कलेस्साओ पुद्धत्तविदक्कचीचार-ज्झाणं छदब्बऔर वचनमें पृथक्त्वरूपसे संक्रमण करनेवाले मनके णवपयत्थ विसयमंतोमुत्तकालं ज्झायइ। अत्थदो द्वारा मोहनीय कर्मकी प्रकृतियोंका उपशम और अत्यंतरसंकमे संति वि ण ज्झाण विणासो, क्षय करता हुआ पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानको धारण चित्तंतरगमणाभावादो । १ यतः उपशान्तमोह जीव करनेवाला होता है। फिर शक्तिकी कमीसे योगसे अनेक द्रव्योंका तीनों ही योगोके आलम्बनसे ध्यान योगान्तर, व्यंजनसे व्यंजनान्तर और अर्थसे करते हैं इसलिए उसे पृथक्त्व ऐसा कहा है ।५८ । अर्थान्तरको प्राप्त कर मोहरजका विधूननकर ध्यानसे यतः वितर्कका अर्थ श्रुत है और यतः पूर्वगत निवृत्त होता है यह पृथक्त्ववितकवीचार ध्यान है। अर्थमें कुशळ साधु ही इस ध्यानको ध्याते हैं, (रा.वा./९/४४/१/६३४/२५); (म.पु./२१/ इसलिए इस ध्यानको सवितर्क कहा है ।५९। अर्थ, १७०-१७३) व्यंजन और योगोंका संक्रम वीचार है। जो ऐसे ध. १३/५,६, २६/गा. ५८-६०/७८ संक्रमसे युक्त होता है उसे सूत्रमें सविचार कहा है दव्वाइमणेगाइं तीहि वि जोगेहि जेण ज्झायंति। ।६०। (त.सा./७/४५-४७) । २. इसका भावार्थ उवसंतमोहणिज्जा तेण पुधतं ति तं भणितं ५८। कहते हैं...एक द्रव्य या गुण-पर्यायको श्रुतरूपी जम्हा सुदं विदक्कं जम्हा पुवगयअत्थकुसलो य। रविकिरणके प्रकाशके बलसे ध्याता है । इस ज्झायदि ज्झाणं एदंसविदक्कं तेण तं ज्झाणं ५९। प्रकार उसी पदार्थको अन्तर्मुहूर्तकाल तक ध्याता अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो हु है। इसकेबाद अर्थान्तरपर नियमसे संक्रमित होता वीचारो । तस्स य भावेण तगं सुत्ते उत्तं है। अथवा उसी अर्थके गुण या पर्यायपर संक्रमित Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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