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________________ २८६ ध्यानशतकम् नुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधि- उसे शुक्लध्यान या रूपातीतध्यान कहते हैं। इसकी सञ्जातवीतरागसहजानन्दरूपसुखानुभूतिमात्रलक्षणेन भी उत्तोरत्तर वृद्धिगत चार श्रेणियाँ हैं। पहली श्रेणीमें स्वसंवेदनज्ञानेन संवेद्यो, गम्यः, प्राप्यो, अबुद्धिपूर्वक की ज्ञानमें ज्ञेय पदार्थोकी तथा योग भरितावस्थोऽहं, रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभ प्रवृत्तियोंकी संक्रान्ति होती रहती है, अगली श्रेणियोंमें पञ्चेन्द्रियविषयव्यापारः, मनोवचनकायव्यापार यह भी नहीं रहती। रत्नदीपककी ज्योतिकी भाँति भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मख्यातिपूजालाभदृष्टश्रुता निष्कंप होकर ठहरता है। श्वास निरोध इसमें करना नुभूतभोगाकाङ्क्षारूपनिदानमायामिथ्याशल्यत्रयादि सर्वविभावपरिणामरहितः। शून्योऽहं जगत्त्रये नहीं पडता अपितु स्वयं हो जाता है। यह ध्यान कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च साक्षात् मोक्षका कारण है। शुद्धनिश्चयेन, तथा सर्वे जीवाः इति निरन्तरं १ भेद व लक्षण भावना कर्तव्या। बन्धका विनाश करनेके लिए १ शुक्लध्यान सामान्यका लक्षण विशेष भावना कहते हैं- मैं तो सहजशुद्ध शुक्लध्यानमें शुक्लशब्दकी सार्थकता ज्ञानानन्दस्वभावी हूँ, निर्विकल्प तथा उदासीन हूँ। निरंजन निज शुद्धआत्माके सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान व -दे. शुक्लध्यान/१/१। अनुष्ठानरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिसे । शुक्लध्यानके अपरनाम -दे. मोक्षमार्ग/२/५ । उत्पन्न वीतरागसहजानन्दरूप सुखानुभूति ही है लक्षण २ शुक्लध्यानके भेद जिसका, ऐसे स्वसंवेदनज्ञानके गम्य हूँ । ३ बाह्य व आध्यात्मिक शुक्लध्यानका लक्षण भरितावस्थावत् परिपूर्ण हूँ। राग-द्वेष-मोह-क्रोध-मान- ४ शुन्यध्यानका लक्षण माया व लोभ से तथा पंचेन्द्रियोंके विषयोसे, ५ पृथक्त्ववितर्कविचारका स्वरूप मनोवचनकायके व्यापारसे, भावकर्म-द्रव्यकर्म व ६ एकत्ववितर्कअविचारका स्वरूप नोकर्मसे रहित हूँ । ख्याति पूजा लाभसे देखे सुने व अनुभव किये हुए भोगोंकी आकांक्षारूप निदान ७ सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपातीका स्वरूप तथा माया, मिथ्या इन तीन शल्योंको आदि लेकर ८ समुच्छिन्नक्रियानिवृत्तिका स्वरूप सर्व विभाव परिणामोंसे रहित हूँ। तिहुँलोक तिहुँकालमें २ शुक्लध्यान निर्देश मन-वचन-काय तथा कृत-कारित- अनुमोदनाके ध्यानयोग्य द्रव्य क्षेत्र आसनादि द्वारा शुद्ध-निश्चयसे मैं शून्य हूँ । इसी प्रकार सब -दे. कृतिकर्म/३। जीवोंको भावना करनी चाहिए । (स.सा./ता.वृ./ धर्म व शुक्लध्यानमें कथंचित् भेदाभेद परि.का अन्त) -दे. धर्मध्यान/३। ७. शुक्लध्यान शुक्लध्यानमें कथंचित् विकल्पता व निर्विकल्पता व क्रमाक्रमवर्तिपना -दे. विकल्प । ध्यान करते हुए साधुको बुद्धिपूर्वक राग समाप्त हो शुक्लध्यान व रूपातीतध्यानकी एकार्थता जाने पर जो निर्विकल्प समाधि प्रगट होती है, -दे. पद्धति । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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