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________________ २७७ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् कहते हैं, तो कोई मुनि मोक्ष प्राप्त आत्माका स्मरण प्र. सा./मू./८ परिणमदि जेण दव्वं तत्कालं कैसे करे? ।१७। उत्तर- प्रथम तो उस परमात्माके तम्मयति पण्णत्तं...।८। जिस समय जिस भावसे गुण समूहोंको पृथक्-पृथक् विचारे और फिर उन द्रव्य परिणमन करता है, उस समय वह उस गुणोंके समुदायरूप परमात्माको गुण गुणीका अभेद भावके साथ तन्मय होता है) (त.अनु./१९१) करके विचार और फिर किसी अन्यकी शरणसे त. अनु./१९१ येन भावेन यद्रूपं ध्यायत्यारहित होकर उसी परमात्मामें लीन हो जावे।१८। त्मानमात्मवित्। तेन तन्मयतां याति सोपाधिः परमात्माके स्वरूपसे भावित अर्थात् मिला हुआ स्फटिको यथा ।१९१। आत्मज्ञानी आत्माको जिस ध्यानी मुनि उस परमात्माके गुण समूहोंसे पूर्णरूप भावसे जिस रूप ध्याता है, उसके साथ वह उसी अपने आत्माको करके फिर उसे परमात्मामें योजन प्रकार तन्मय हो जाता है। जिस प्रकार कि उपाधिके करे ।१९। आगममें कर्मरहित व कर्मसहित दोनों साथ स्फटिक ।१९१। (ज्ञा./३९/४३ में उद्धृत)। आत्म-तत्त्वोंमें व्यक्ति व शक्तिकी अपेक्षा समानता (२.) जैसा परिणमन करता है उस समय आत्मा मानी गयी है।२०। वैसा ही होता है त. अनु./१८९-१९३ तन्न चोद्यं यतोऽस्माभिर्भावार्हन्नयमर्पितः। स चाहद्ध्याननिष्ठात्मा प्र.सा./मू./८-९..। तम्हा धम्मपरिणदो आदा ततस्तत्रैव तद्ग्रहः ॥१८९। अथवा भाविनो भूताः धम्मो मुणेयव्वो ।८। जीवो परिणमदि जदा स्वपर्यायास्तदात्मिकाः। आसते द्रव्यरूपेण सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो । सुद्धेण तथा सर्वद्रव्येषु सर्वदा ।१९२। ततोऽयमहत्पर्यायो भावी सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो ।९। इस प्रकार वीतरागचारित्ररूप धर्मसे परिणत आत्मा स्वयं धर्म द्रव्यात्मना सदा। भव्येष्वास्ते सतश्चास्य ध्याने होता है ।८। जब वह जीव शुभ अथवा अशुभ को नाम विभ्रमः ।१९३। हमारी विवक्षा भाव अर्हतसे है और अर्हतके ध्यानमें लीन आत्मा ही परिणामोंरूप परिणमता है तब स्वयं शुभ और है, अत: अर्हद्ध्यान लीन आत्मामें अर्हतका ग्रहण अशुभ होता है और जब शुद्धरूप परिणमन करता है ।१८९। अथवा सर्वद्रव्योंमें भूत और भावी है तब स्वयं शुद्ध होता है ।९। स्वपर्यायमें तदात्मक हुई द्रव्यरूपसे सदा विद्यमान (३.) आत्मा अपने ध्येयके साथ समरस हो रहती हैं। अत: यह भावी अर्हत पर्याय भव्यजीवोमें जाता है सदा विद्यमान है, तब इस सत् रूपसे स्थिर त. अन/१३७ सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं अर्हत्पर्यायके ध्यानमें विभ्रमका क्या काम है ।१९२ स्मृतम्। एतदेव समाधिः स्याल्लोकद्वयफलप्रदः १९३। ११३७। उन दोनों ध्येय और ध्याताका जो यह [४.] ध्यानकी तन्मयता सम्बन्धी सिद्धान्त । एकीकरण है, वह समरसीभाव माना गया है, यही (१.) ध्याता अपने ध्यानभाव से तन्मय होता है। शानभात गोमा एकीकरण समाधिरूप ध्यान है, जो दोनों लोकोंके फलको प्रदान करनेवाला है। (ज्ञा./३१/३८) _Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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