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________________ २५० हुए जीवके तीव्र मन्द आदि भेदोंको प्राप्त हुई, क्रमसे विशुद्धिका प्राप्त हुई पीत, पद्म और शुक्ललेश्याएँ होती हैं । (म.पु. / २१ / १५६) । चा.सा./२०३ सर्वमेतत् धर्मध्यानं पीतपद्मशुक्ललेश्या बलाधानम्.... परोक्षज्ञानत्वात् क्षायोपशमिक - भावम् । सर्व ही प्रकारके धर्मध्यान पीत, पद्म व शुक्ललेश्याके बलसे होते हैं, तथा परोक्षज्ञानगोचर होनेसे क्षायोपशमिक हैं । (म.पु. / २१/१५६-१५७) ज्ञा. / ४१९ / १४ धर्मध्यानस्य विज्ञेया स्थितिरान्तमुहूर्तकी । क्षायोपशमिको भावो लेश्या शुक्लैव शाश्वती ।१४। इस धर्मध्यानकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त है, इसका भाव क्षायोपशमिक है और लेश्या सदा शुक्ल हो रहती है । (यहाँ धर्मध्यानके अन्तिम पायेसे अभिप्राय है ) । (३.) वास्तविक धर्मध्यान मिथ्यादृष्टिको सम्भव नहीं · न. च. बृ/ १७९ झाणस्स भावणा विय ण हु सो आराहओ हवे नियमा । जो ण विजाणइ वत्युं पाणणयणिच्छयं किया । जो प्रमाण व नयके द्वारा वस्तुका निश्चय करके उसे नहीं जानता, वह ध्यानकी भावनाके द्वारा भी आराधक नहीं हो सकता । ऐसा नियम है। ज्ञा. / ६ / ४ रत्नत्रयमनासाद्य यः साक्षाद्ध्यातुमिच्छति । खपुष्पैः कुरुते मूढः स वन्ध्यासुतशेखरम् / ४ । ज्ञा./४/१८३० दुर्दशामपि न ध्यानसिद्धिः स्वप्नेऽपि जायते । गृह्णतां दृष्टिवैकल्याद्वस्तुजातं Jain Education International 2010_02 ध्यानशतकम् यदृच्छया । १८ । ध्यानतन्त्रे निषेध्यन्ते नैते मिथ्यादृशः परम् । मुनयोऽपि जिनेशाज्ञाप्रत्यनीकाश्चलाशयाः / ३० । जो पुरुष साक्षात् रत्नत्रयको प्राप्त न होकर ध्यान करना चाहता है, वह मूर्ख आकाशके फूलोंसे वन्ध्यापुत्रके लिए सेहरा बनाना चाहता है ।४ । दृष्टिकी विकलतासे वस्तुसमूहको अपनी इच्छानुसार ग्रहण करनेवाले मिथ्यादृष्टियोंको ध्यानकी सिद्धि स्वप्नमें भी नहीं होती है | १८ | सिद्धान्तमें ध्यानमात्र केवल मिथ्यादृष्टियोको ही नहीं निषेधते हैं, किन्तु जो जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञासे प्रतिकूल हैं तथा जिनका चित्त चलित है और जैन साधु कहाते हैं, उनको भी ध्यानका निषेध किया जाता है, क्योंकि उनको ध्यानकी सिद्धि नही होती / ३० । पं. ध/ उ. / २०९ नोपलब्धिरसिद्धास्य स्वादुसंवेदनात्स्वयम् । अन्यादेशस्य संस्कारमन्तरेण सुदर्शनात् ।२०९। संसारी जीवोंके मैं सुखी दुःखी इत्यादि रुपसे सुख-दुःखके स्वादका अनुभव होने के कारण अशुद्धोपलब्धि असिद्ध नहीं है, क्योंकि उनके स्वयं ही दूसरी अपेक्षाका ( स्वरूपसंवेदनका) संस्कार नहीं होता है। (४.) गुणस्थानोंकी अपेक्षा धर्मध्यानका स्वामित्व स.सि/९/३६/४५०/५ धर्मध्यानं चतुर्विकल्पमवसेयम् । तदविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति । स.सि /९/३७/४५३ / ६ श्रेण्यारोहणात्प्राग्धर्म्य श्रेण्योः शुक्ले इति व्याख्याते । १. धर्मध्यान चार प्रकारका जानना चाहिए। यह अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंको होता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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