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जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम्
परिशिष्टम् - २२, मुणेयव्वा । ५५ । आगम, उपदेश और जिनाज्ञाके अनुसार निसर्गसे जो जिनभगवानके द्वारा कहे गये पदार्थोका श्रद्धान होता है वह धर्मध्यानका लिंग है । ५४ । जिन और साधुके गुणोंका कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय-दानसम्पन्नता, श्रुत, शील, और संयममें रत होना, ये सब बातें धर्मध्यानमें होती हैं । । ५५ ।
म.पु./२१/१५९-१९६१ प्रसन्नचित्तता धर्मसंवेगः शुभयोगता सुश्रुतत्वं समाधानं आज्ञाधिगमजा रुचिः । १५९ । भवन्त्येतानि लिङ्गानि धर्म्यस्यान्तर्गतानि वै । सानुप्रेक्षाश्च पूर्वोक्ता विविधाः शुभभावनाः । १६० । बाह्यं च लिङ्गमङ्गानां सन्निवेशः पुरोदितः । प्रसन्नवक्त्रता सौम्या दृष्टिचेत्यादि लक्ष्यताम् । १६१ । प्रसन्नचित्त रहना, धर्मसे प्रेम करना, शुभयोग रखना, उत्तम शास्त्रोंका अभ्यास करना, चित्त स्थिर रखना और शास्त्राज्ञा तथा स्वकीय ज्ञानसे एक प्रकारकी विशेष रुचि (प्रतीति अथवा श्रद्धा) उत्पन्न होना, ये धर्मस्थान के बाह्यचिह्न है, और अनुप्रेक्षाएँ तथा पहले कही हुई अनेक प्रकारकी शुभ भावनाएँ उसके अन्तरंग चिह्न है। १५९-१६०। पहले कहा हुआ अंगोका सन्निवेश होना, अर्थात् पहले जिन पर्यंकादि आसनोंका वर्णन कर चुके है (दे० 'कृतिकर्म) उन आसनोंको धारण करना, मुखकी प्रसन्नता होना, और दृष्टिका सौम्य होना आदि सब भी धर्मध्यानके बाह्यचिह्न समझने चाहिए ।
ज्ञा. / ४१/१५ - १ में उद्धृत- अलौल्यमारोग्यनिष्ठुरत्वं गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पम् । कान्तिः प्रसादः स्वरसौम्यता च योगप्रवृत्तेः प्रथमं हि चिह्नम् ।१। विषय लम्पटताका न होना, शरीर
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२४३ नीरोग होना, निष्ठुरताका न होना, शरीरमेंसे शुभ गन्ध आना, मलमूत्रका अल्प होना, शरीरकी कान्ति शक्तिहीन न होना, चित्तकी प्रसन्नता, शब्दोका उच्चारण सौम्य होना-ये चिह्न योगकी प्रवृत्ति करनेवालेको अर्थात् ध्यान करनेवाले के प्रारम्भदशामें होते हैं। (विशेष दे० ध्याता)
(३.) धर्मध्यान योग्य सामग्री
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द्र. सं./टी/५७/२२९ / / ३ में उद्धृत - 'तथा चोक्तं वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैर्ग्रन्थ्यं समचित्तता । परीषहजयश्चेति पञ्चैते ध्यानहेतवः । सो ही कहा है कि - वैराग्य, तत्त्वोंका ज्ञान, परिग्रहत्याग, साम्यभाव और परीषहजय ये पाँच ध्यानके कारण हैं।
त. अनु. / ७५, २१८ सङ्गत्यागः कषायाणां निग्रहो व्रतधारणम् । मनोऽक्षाणां जयश्चेति सामग्रीध्यानजन्मनि । ७५ । ध्यानस्य च पुनर्मुख्यो हेतुरेतचतुष्टयम् । गुरूपदेश: श्रद्धानं सदाभ्यासः स्थिरं मनः । २१८ । परिग्रह त्याग, कषायनिग्रह, व्रतधारण, इन्द्रिय व मनोविजय, ये सब ध्यानकी उत्पत्तिमें सहायभूत सामग्री हैं । ७५ । गुरूपदेश, श्रद्धान, निरन्तर अभ्यास और मनकी स्थिरता, ये चार ध्यानकी सिद्धिके मुख्य कारण हैं । (ज्ञा . / ३/१५-२५) ।
दे. ध्यान / ३ (धर्मध्यानके योग्य उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य द्रव्यक्षेत्रकालभावरूप सामग्री विशेष) ।
(४.) धर्मध्यान के भेद
१. आज्ञा, अपाय, विपाक आदि ध्यान त.सू./९/३६ आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय
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