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ध्यानशतकम्
[ढाल-७ - राग - आदर जीव क्षमा गुण आदर. एहनी] ध्यावो ध्यान पदस्थ विचारी, अंतरंग बहुरूपी जी; अंतरंग शिव सुखनो साधक, बाह्य पुण्य सुख भूप जी । ध्यावो० १ कामताप दुःख व्याप गमावे, ही अक्षर एहजी; ज्ञानरूप निरमल अविनासी, ओं ए गुण गेहजी । ध्यावो० २ उक्तं च - अरिहंता असरीरा, आयरिया उवज्झाया; तहा मुणिणो, पढमखरनिप्पत्रो; ओंकारो परमिट्ठी ।। १ ।। हृदय कलम धर्यो कर्म नसावे, श्वेत वरण स्वर युक्त जी; रक्त वर्णथी जगमे क्षोभे, प्रीते रीपुथी मुक्ति जी । ध्यावो० ३ श्याम रंग ध्यायां जग मोहे, बाह्यरूप ओंकार जी; जाणे को मुनि इणरो महिमा, बीजो न लहे पार जी । ध्यावो० ४ पण परमेठी ज्ञानादि त्रय, दिशे विदिशे अड पत्र जी; विचे ओंकार रूप शुद्धातम, दुविधे न साधे त्रस जी । ध्यावो० ५ भवकिलेस सहू नासे इणथी, शुद्ध करे निज देव जी; कृपानिधान इण सम नहीं बीजो, परम मंत्र ए सेव जी । ध्यावो० ६ इणथीने सुर थाये तिरजंच, ध्यान पुण्यनो गेह जी; परमसिद्धिदायक ए ओंपद, सोल वरणयुत एह जी । ध्यावो० ७ दोसत ध्याने चोथफल, छठ पुण्ये इण ध्यान जी; अरहंत सिद्ध षड अक्षर ध्यायां, सिद्धसमो ए मान जी । ध्यावो० ८ ओंमूल पांच ह्रींपद, आसिआउसा सारजी; मन थिर ध्यायां निस्संगे, जन्म मरण भय वार जी । ध्यावो० ९ चोमंगलयुत ए मंगलकर, जप्यां वरण ये सिद्ध जी; ओं ह्रीं श्रीं अहँपद, नमः युत द्ये अतिरिद्ध जी । ध्यावो० १०
नमोसिद्धाणं कर्म विणासे, वधारे सममाव जी; मंत्रपदानि यथा -
ओं नमो अर्हते केवलिने परमयोगिने अनन्तशुद्धिपरिणामस्फुरदुरुशुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धकर्मबीजाय प्राप्तानन्तचतुष्टयाय सौम्याय शान्ताय मङ्गलाय वरदाय अष्टादशदोषरहिताय स्वाहा इति मन्त्रः।।
इत्यादिकगुणयुतशिवसाधक, निज परमातम भाव जी । ध्यावो० ११
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