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परिशिष्टम्-१९, ध्यानदीपिकाचतुष्पदी
१८७ खंड - ५
[दुहा पंच महाव्रत जिम मिल्या, शिव सुखना दातार; जिम पंचम खंड सांभल्या, अक्षय सुख आधार । १ मोह अज्ञान कदाग्रह, तत्त्वदृष्टि न रहाय; शुद्धातम जाण्या विना, निज तत्त्व थिर नवि जाय । २ मन थीरथी साक्षात हे, शुद्धातम स्वभाव, लक्ष थूल सालंबथी, सूक्ष्म निरालंब भाव । ३ आज्ञापाय विपाक वलि, लोकस्थिति आकार; इसे विवके भावना, धर्मध्यान चौधार । ४
ढाल-१ - राग - बे बे मुनिवर विहरण पांगुर्या रे. ए देशी ध्यान धरमरो धिरज धरि धरो रे, आज्ञाविचन सुनाम रे; वसु तत्त्व सिद्धांते जे कह्या रे, ध्यावे माने थिर परिणाम रे । ध्यान० १ दोय प्रमाण निक्षेपा चारथी रे, सातनये युत ए स्याद्वाद रे; हेतु युकति करि ते हणवो नही रे, जिनवर न वदे कूडावाद रे । ध्यान० २ स्वाभावि स्वाधीन त्रिकालमे रे, ए छे गुणपर्याय अनंत रे; ज्ञानी सिद्ध द्रव्यने मानीतू रे, व्यय उत्पादने ध्रुगुणवंत रे । ध्यान० ३ श्रुत ज्ञान निरमल जिनवर दाखीयो रे, शब्द अर्थ यूं नित्यचितार रे; शुद्धाशुद्ध द्रव्य जाणे सहु रे, तेह शक्ति श्रुतनी सार रे । ध्यान० ४ पूर्वापर अविरोधी शुद्ध ए रे, निक्कलंक अनादि गंभीर रे । सर्व जाण नय उपनय युक्त छ रे, गहन अरथ मुनि वंद्य सुधीर रे । ध्यान० ५ रत्नाकर जिमे शोभे अतिघणो रे, पद अधिकार रंगथी युक्त रे; कुमति सर्प मिथ्यातम गालवा रे, ग्रीष्म रविसम जेहनी सक्त रे । ध्यान० ६ त्रिभुवन पूज्य शुद्धि कर आत्मानो रे, जसु अनुयोगादिक चउ भेद रे; द्रव्यार्थिक पर्यायनये करि रे, सादि अनादि अछे गत छेद रे । ध्यान० ७ नय निक्षेप करी कसवटी समो रे, कुमति भुधर भंजणहार रे; उत्तम संत मुनिने ध्येय छे रे, आगम जलधि अनंत अपार रे । ध्यान० ८ त्रिभुवन पूज्य जन्म भय क्षय करे रे, स्यात्पद लक्षण युत ध्येय रे; उत्पादादिक युत षट् द्रव्य छे रे, जिन भाख्यो श्रुत ए शिव देय रे । ध्यान० ९ विबुधानंदन विद्यागेह छे रे, शिव प्रस्थान पडह सम एह रे; तत्त्व कथक अज्ञान विना सहु रे, उत्तम भणज्यो जे श्रुत एह रे । ध्यान० १०
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