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________________ १५६ ध्यानशतकम चोथु वधादिक पाप करतो, जावजीव न ओसरे; परलोक समे पण न चिंते, कालसौरिकनी परे ।।५।। चाल : एह लक्षण रे, रौद्रतणां जिनजी कहे; एणे ध्याने रे, इहलोके पण दुःख लहे। एह ध्याने रे, रौद्र अवरने चितवी; पातिकनी रे, राशि कमाये नवनवी ।। त्रोटक : नवनवी आपद लहे आपे, द्रोह पापे जीवडो; ललितांगशुं जिम द्रोह करतो, तास दास जडो वडो । द्रोही सुदर्शनतणो जोगी, सर्पथी परभवे गयो; युगबाहु उपरें द्रोह बुद्धि, दुःखी मणिरथ थयो ।।६।। चाल : इण ध्याने रे, परभव होय निरयगति; कंडरिको रे, कुरुडो उक्कुरडो जति । ब्रह्मदत्तो रे, चक्की सुभूम वसुनृपो; तिम मंडिक रे, लोहखुरो चौराधिपो ।। त्रोटक : पौराधिपो तिम मंद मम्मण, सेठ पमुहा बहुजणा; चारे प्रकारे रौद्र करीने, नरके पहुता अतिघणा । तेण जाणी रौद्रध्यान छंडो, भविक शुभमति आदरो; कहे भाव समता भाव भावी, सुखे सिद्धिवधू वरो ।।७।। इति रौद्रध्यानस्वरूपम् । [ढाल-३, दुहा] सिद्धि लता वने जलधरु, सुख संतान निदान; त्रीजु ध्यान कहुं हवे, नामे धरम ध्यान ।।१।। सर्व जीव निज जीवसम, चिंतवतो गुणवंत; समता रसमां झीलतो, थोर संवेग धरंत ।।२।। धीरपणे सहतो सदा, परिसह ने उपसर्ग; रागादिक सर्व जीपतो, अंतरंग रिपु वर्ग ।।३।। निरमल संजम पालतो, परिहरतो सवि दोष; आशा परनी छांडतो, मन धरतो संतोष ।।४।। सुख सघलां संसारनां, चिंतवतो दुःखरूप; एह ध्यानने ध्याववा, योग्य कह्यो मुनिभूप ।।५ ।। [राग - प्रणमुं तुम सीमंधरुजी...देशी] चार भेद तेहना कह्यांजी, तिहां ए पहेलो जाण; चित्त विवेकी चिंतवेजी, श्री जिन आण प्रमाण, चतुरनर, सेवो श्री जिनवाण, कामित पूरण सुरलताजी; शिव सुख सुरतरु खाण, चतुर० ।।१।। मूलथकी जेणे कर्योजी, रागादिक रिपु अंत; ते जिन नवि बोले मृषाजी; जेहनुं ज्ञान अनंत, चतुर० ।।२।। Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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